प्राक्कथन

 

वेदके विषममें परंपरा

 

वेद प्राचीन कोलमें ज्ञानकी एक पवित्र पुस्तकके रूपमें  आवृत था, यह अंत:स्कुरित कविताका एक विशाल संग्रह माना जाता था,  उन ॠषिंयों'की-द्रष्टाओं तथा संतोंकी-कृति माना जाता था जिन्होंने अपने मन द्वारा कुछ घड़फर बनानेकी जगह एक महान्, व्यापक, क्षाश्वत तथा अपौरुषेय सत्यको अपने आलोकित मनोके अंदर ग्रहण किया और उसे 'मंत्र'में मूर्त किया, जिन्होने ऐसे शक्तियुक्त मन्त्रोंको प्रकट किया जो किसी साधारण नही किन्तु दिव्य स्कुरण तथा दिव्य स्रोतसे आये थे|  इन ॠषियोंको जो नाम दिया गया था ह था 'कवि', जिसका अर्थ यद्यपि पीछेसे कोई भी कविता करनेवाला हो गया, पर उस समयमें इसका अर्थ था 'सत्यका द्रष्टा' । स्वयं वेद इन्हें कहता है 'फवय: सत्यश्रुतः' अर्थात् 'वे द्रष्टा जो दिव्य सत्यको श्रवण करनेवाले थे', और स्वयं वेदको ही 'श्रुति' नामेसे पुकारा गया था जिसका अर्थ साक्षात्कृत ( अंन्त:भूत ) धर्म-पुस्तक' हो गया । उपनिषदोंके ॠषियोंका भी वेदके विषयमे यही  उच्च विचार था और वे अपने-आप जिन सत्योंको प्रतिपादित कस्ती हैं उनकी प्रमाणिकताके लिये बार-बार वेदकी ही साक्षी प्रस्तुत करती हैं और पीछे जाकर ये उपनिषदें भी 'श्रुति'के रुपमे--'इलहामकी धर्म-पुस्तक'के रूपमें आदृत होने लगीं और शास्त्रोमें सम्मिलित कर ली गयीं ।

 

बेदविषयक यह परम्परा बाह्मण-ग्रंथोंमें भी बराबर रही है और याज्ञिक (कर्मकाण्डी ) टीकाकारोंके द्वारा प्रत्येक बातकी व्याख्या गाथात्मक तथा यज्ञक्रिया-परक कर दिये जानेपर भी तथा पण्डितोंद्वारा ज्ञानकाण्ड और कर्मकाण्डका विभेदक विभाजन (जिसमें मन्त्रमात्रको कर्मकाण्ड तथा उपनिषदोंको ज्ञानकाण्डमें ले लिया गया ) कर दिये जानेपर भी, इस परम्पराने अपने-आपको कायम ही रखा | कर्मकाण्ड-विभागके अन्दर

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श्रीअरविन्दके ग्रन्थ 'Hymns to the Mystic Fire' (अग्नि-स्तुति) की भूमिका उनद्वारा रचित वैदिक साहित्यमे प्रवेशके लिए अत्यन्त होनेसे यहाँ ज्योंकी-त्यों दी जा रही है |                                                                                                                           --अनुवादक
२ जैसे ॠग्वेद 5-57-8, 6-49-6


ज्ञान-विभागके इस प्रकार डुबा दिये जानेको कठोर शब्दोंमें भर्त्सना एक उपनिषद्में तथा गीतामें भी की गयी है, किन्तु ये दोनों  ( उपनिषद् और गीता ) वेदको ज्ञानकी पवित्र पुस्तकके रूपमें ही देखती हैं । यही नहीं किन्तु श्रुतिको (जिसमें वेदके साथ उपनिषदें भी समाविष्ट है ) आध्यात्मिक ज्ञानके लिये परम प्रमाण तथा अभ्रान्त माना गाया है ।

 

तो क्या येदविषयक यह परंपरा केवल गप्प और हवाई कल्पना है,  या बिल्कुल निराधार बल्कि मूर्खतापूर्ण बात है ? अथवा क्या यह तथ्य है कि वेदके पीछेके कुछ मन्त्रोंमें उच्च विचारोंका जो एक केवल क्षुद्र-सा भाग है, उसीक कारण यह परंपरा चली ? क्या उपनिषदोंके कर्ताओंने वैदिक ॠचाओंपर वह अर्थ मढ़ दिया है जो वहाँ असलमें कहीं नहीं है, क्या उन्होंने अपनी कल्पनाके द्वारा तथा मनमौजी व्याख्याके द्वारा उनमेंसे वह अर्थ निकाल लिया है ?, आधुनिक पाश्चात्य विद्वान् आग्रह करते हैं कि यह ऐसी ही बात है और आधुनिक भारतीय मनको भी उन्होंने प्रभावित कर.लिय है । इस दृष्टिकोणके पक्षमें यह तथ्य भी है कि वेदके ऋषि न केवल द्रष्टा थे, किन्तु वे, गायक तथा यज्ञके पुरोहित भी थे, कि उनके गीत सार्वजनिक यज्ञोंमें गाये जानेके  लिये लिखे गये थे और वे निरन्तर ही प्रश्वलित क्रिया-कलापकी ओर निर्देश करते हैं और इन यज्ञ-विधियोके बाह्य उद्देश्यों-उद्दिष्ट पदार्थों--जैसे धन, समृद्धि, शत्रुपर विजय आदिकी ही प्रार्थना करते प्रतत होते हैं । वेदका महान् टीकाकार सायण हमारे सामने सदा ॠचाओंफा कर्मकाण्ड-सम्बंधी अर्थ ही प्रस्तुत करता है । जहाँ आवश्यक हो जाय वहीं और वह भी परीक्षणात्मक विचारके तौररपर वह एक गाथात्मक या ऐतिहासिक अर्थ भी उपस्थित करता है, पर कभी विरले ही अपनी टीकामें कोई उच्चतर अर्थ प्रदर्शित करता है, यद्यपि कभी-कभी वह किसी उच्चतर अभिप्रायकी झलक आ जाने देता है, या इस (उच्चतर अभिप्राय ) को केवल एक विकल्पके रूपमें, मानों किसी याज्ञिक गाथात्मक व्याख्याके हो सकनेकी संभावनासे निराश होकर, विवश-सा होकर; प्रकट करता है । पर फिर भी वह वेदकी आध्यात्मिक रूपसे परम प्रमाणिकता मानता है,  इससे विमुख नहीं होता और, नाहीं, वह इस बातसे इन्कार करता है कि ऋचाओंमें एक उच्चतर सत्य निहित है । यह अन्तिम कार्य ( वेदकी आध्यात्मिक प्रमाणिकतासे इन्कार आदि ) हमारे युगके लिये छोड़ दिया गया था और यह पाश्चात्य विद्वानोंने किया तथा अपने मन्तव्य का प्रचार भी किया ।

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पश्चिमी विद्वानोंका मत

 

योरुषीय विद्वानोंने कर्मकाण्डीय परम्पराको तो सायणसे ले लिया, परन्तु अन्य बातोके लिये इसको (सायणको ) नीचे धकेल दिया । और वे अपने ढंगसे शब्दोंकी व्युत्पत्तिपरक व्याख्याको लेकर चलते गये, या अपने ही अनुमानात्मक अर्थोंके साथ' वैदिक मन्त्रोंकी व्याख्या करते गये और उन्हें एक यथा ही रूप प्रदान कर दिया, जो प्रायश: उच्छृंखल तथा कल्पनाप्रसूत था' । वेदमें उन्होंने जो कुछ खोजा वह था भारतका प्रारम्भिक इतिहास, इसका समाज, संस्थाएं, रीति-रिवाज तथा उस समयकी सभ्यताका चित्र । उन्होंने भाषाओंके विभेदपर आधारित एक मत, एक परिकल्पनाको घड़ा कि उत्तरके आर्योंके द्वारा द्राविड़ भारतपर आक्रमण किया गया था, जिसकी स्वयं भारतीयोंमें कोई स्मृति या परम्परा नहीं मिलती और जिसका भारतके किसी महाकाव्य या प्रमाणभूत साहित्यमें कहीं कुछ उल्लेखतक नहीं पाया जाता । उनके हिसाबसे वैदिक धर्म इसके. सिवाय और कुछ नहीं कि यह प्रकृतिके देयताओंकी पूजा है जो सौर गाथाओंसे भरी हुई तथा यज्ञोंसे पवित्रकी. गयी है, साथ ही यह एक याज्ञिक प्रार्थनाविधि है जो अपने विचारों तथा क्रियाओंमें पर्याप्त आरंभकालिक है और ये जंगली प्रार्थनाएं ही बहु- प्रशंसित, इतना महिमायुक्त बनाया हुआ तथा दिव्यत्वापादित वेद हैं ।

 

देवताओंका रूपपरिवर्तन और वेद

 

इसमें कोई सं:देह नहीं हो सकता कि आरंभमें, भौतिक: जगत्की शक्ति-योंकी पूजा होंती थी जैसे सूर्य, चन्द्रमा, घौ और पृथ्वी, वायु, वर्षा और आंधी आदिक, ? पवित्र नदियोंकी तथा अनेक ' देवोंकी जो प्रकृति क्रियाओंका अधिष्ठातृत्य करते हैं । ग्रीसमें, रोममें, भारतमें तथा अन्य पुरातन जातियोंमें प्राचीन पूजाका सामान्य स्वरूप यही था । परन्तु इन सभी देशोंमें इन देवताओंने एक उच्चतर आन्तरिक या आध्यात्मिक व्यापार. ग्रहण करना आरम्भ कर दिया था । पलास एथिनी ( Pallas Atheneप्रखंड ) जो आरंभमें जीस (Zeus) के सिरसे, आकाश-देवतासे, वेदके 'धौ'से ज्यालामय रुपमे उद्भूत होनेवाला उषा-देवता रहा होगा, प्राचीन अभिजात ग्रीसमें एक उच्चतर व्यापारको करनेवाला देवता हो गया और रोमन लोगों द्वारा अपने मिनर्वा ( Minerva) के, विद्या और ज्ञानके देवताके साथ एक कर दिया गया था । इसी तरह सरस्वती,  एक नदी-देवता, भारतमें ज्ञान, विद्या, कला और कौशलकी देवी हो जाती है । सभी ग्रीक देवता इस दिशामें परिवर्त्तनको प्राप्त हुए हैं--अपोलो (Apollo), सूर्य देवता, 'कविता तथा

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भविष्यवाणीका देवता हो गया है,  हिफस्टस (Hiphaestus), अग्नि-देवता,  दिव्य कारीगर. श्रमका देवता हो गया है । पर भारतमें वह प्रक्रिया अधबीचमें रुक गयी और यहाँ वैदेक देवोंने अपने आन्तरिकत या आध्यात्मिक व्यापारोंको तो विकसित किया, किन्तु अपने बाह्यस्वरूपको भी अघिक स्थिरताके साथ कायम रखा औरो उच्चतर  प्रयोजनोंके लिये एक नही ही देवमालाको जन्म प्रदान किया । उन्हें उन पौराणिक देयताओंको प्राथमिकता देनी थी जिन्होंने अपने पहले साथियोंमेंसे विकसित होनेपर भी अघिक विस्तृत विश्व-व्यापारोंको धारण कर लिया था, अर्थात् विष्णु, रूद्र, बह्या ( जो वैदिक बृहस्पति या ब्रह्यणस्पतिसे विकसित हुआ ),  शिव, लक्ष्मी और दुर्गा । इस प्रकार भारतममें देवताओंमें, परिवर्तन. कम पूर्ण रहा |  पहलेके देवता पौराणिक देवमालाके क्षुद्र देवता बन गये और इसका प्रमुख कारण था ऋग्वेदका बचे रहना, क्योंकि वेदमें देवताओंके आध्यात्मिक व्यापार तथा बाह्य व्यापार दोनों एक साथ विद्यमान थे और दोनों पर ही पूरा बल दिया गया था । ग्रीस और रोमके देवताओके प्रारंभिक स्वरूपोंको सुरक्षित रखनेथाला इस तरहका  (वेद जैसा ) कोई साहित्यिक लेखा था ही नहीं ।

 

रहस्यवादी

 

देवताओंमें इस परिवर्त्तनका कारण प्रत्यक्ष ही इन सब आदिकालीन जातियोंका सांस्कृतिक विकास था क्योंकि ये   जातियां क्रमश: अधिकाधिक मानसिकतापन्न और भौतिक जीवनमें उत्तरोत्तर कम रत रहनेवाली होती गयीं । ज्यों-ज्यों इन्होंने सभ्यतामे प्रगति की और अपने धर्ममें तथा अपने देवताओंमें ऐसे सूक्ष्मतर एवं परिष्कृततर पहलुओंको देखनेकी आवश्यकता अनुभव  की, तो उनके अधिक उच्चतया मानसिकताप्राप्त विचारों तथा रुचियोंको आश्रय दे सकें और उनके लिये एक सच्ची आध्यात्मिक  सत्ताको या किसी दैवी मूर्त्तिको, उनके अवलम्बन और प्रमाणके रूपमें, उपलब्ध कर सकें त्यों-त्यों ये अधिकाधिक भानसिकतापन्न होती गयीं । परन्तु इस अन्तर्मुखी प्रवृत्तिको निर्धारित करनेमें और इसे ग्रहण करनेमें सबसे अधिक भाग लेनेका श्रेय रहस्यवादियोंको दिया जाना चाहिये,  जिनका इन आदि सभ्यताओंपर बहुत अधिक प्रभाव पड़ा था । निःसंदेह प्रायः सब जगह ही रहस्यमयताका एक युग रहा है जिसमें गंभीरतर ज्ञान, और आत्म-ज्ञान रखनेवाले लोगोंने अपने अभ्यास-साधन अर्थपूर्ण विधिविधान तथा प्रतीकोंको स्थापित किया था,  एवं अपने अपेक्षाकृत आदिकालीन बाह्य धर्मोके अन्दर या उनके एक सिरेपर गुह्यविधाको रखा था । इस ( रहस्यवाद )

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ने भिन्न-भिन्न देशोंमें भिन्न-भिन्न रूप धारण किया । ग्रीसमें ओेर्फिक तथा एलुसीनियन रहस्य थे, मिश्र और खाल्दियामें पुरोहित तथा उनकी गुह्यविधा और जादू थे, ईरानमें मागी तथा भारतमें ऋषि थे । ये रहस्यवादी आत्मज्ञान तथा गंभीरतर  विश्वज्ञान पानेमें निमग्न रहे, इन्होंने खोज निकाला कि मनुष्योंमें एक. गंभीरतर आत्मा और आन्तरतर सत्ता है जो बाह्य भौतिक मनुष्यके उपरितलके पीछे छिपी है और उसे ही खोजना और जानना उसका सर्वोच्च कार्य है 'तू अपने-आपको जान' यह उनकी महान् शिक्षा थी, जैसे कि भारतमें स्वको, आत्माको जानना महान् आध्यात्मिक आवश्यकता, मनुष्यके लिये सर्वोच्च वस्तु हो गयी थी । उन्होंने विश्वके बाहरी रूपोंके पीछे एक सत्यको, एक सद्वस्तुको भी जाना था और इस सत्यको पा लेना, इसका अनुसरण करना तथा इसे सिद्ध करना उनकी महती अभीप्साका विषय था । उन्होंने प्रकृतिके रहस्यों तथा शक्तियोंको खोज निकाला था जो भौतिक जगत्के रहस्य और शक्तियां नहीं थी परन्तु जिनके द्वारा भौतिक जगत् तथा भौतिक वस्तुओंपर गुप्त प्रभुत्व प्राप्त किया जा सकता था और इस गुह्य विधा तथा शक्तिको व्यवस्थित रूप देना भी इन रहस्य-वादियोंका एक प्रबल कार्य था, जिसमें वे व्यस्त रहते थे |  परन्तु यह सब केवल एक कठोर और प्रमादरहित- प्रशिक्षणद्वारा, नियंत्रण .और प्रकृति- शोधनद्धारा ही सुरक्षित रूपसे किया जा सकता था । साधारण मनुष्य इसे नहीं कर सज्जा था । यदि मनुष्य. बिना कठोरतापूर्वक परखे गये और बिना प्रशिक्षण पाये हुए इन बातोंमें पड़ जाय तो यह उनके, लिये तथा अन्योंके लिये खतरनाक होता; क्योंकि इस शक्तियोंका दुरूपयोग किया जा सकता था, .इनके अर्थका अनर्थ किया जा सकता था, इन्हें सत्यसे मिथ्याकी ओर, कल्याणसे अकल्याणकार ओर मोड़ा जा सकता था । इसलिये एक कठोर गुप्तता बरती जाती थी,  ज्ञान पर्देकी ओर गुरुसे  शिष्यको पहुँचाया जाता था । प्रतीकोंका एक पर्दा रचा गया था  जिसकी ओटमें थे रहस्यमय बातें आश्रय ग्रहण कर सकती थी, बोलनेके कुछ सूत्र भी बनाये गये थे जो दीक्षितोंद्वारा ही समझे जा सकते थे, जो अन्योंको या तो अविदित होते थे या उन द्वारा  एक ऐसे बाह्य अर्थमें ही समझे जाते थे जिससे उनका असली अर्थ और रहस्य सावधानतापूर्वक छिपा रहता था  सब जगहके रहस्यवादका सारांश  यही था ।

 

.वेदोंके  गुह्यार्षक होनेकी परंपरा

 

भारतमें यह परंपरा प्राचीनतम कालसे चली आ रही है कि वेदके

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ऋषि, कवि-द्रष्टा,  उपर्युक्त प्रकारके? थे,  वे एक महान् आध्यात्मिक और गुह्य ज्ञानसे युक्त थे, जिसतक साधारण मानय-प्राणियोंकी गति नहीं होती; उन्होंने इस ज्ञानको और अपनी शक्तिको एक गुप्त दीक्षाके द्वारा अपने वंशजों तथा चुने हुए शिष्योंतक पहुँचाया था । यह मान लेना निरी कपोल-कल्पना होगा कि भारतमें चली आ रही यह उपर्युक्त परंपरा सर्वथा निराधार है एवं एक अन्ध-विश्वास है जो एकदम या धीरे-धीरे एक शून्यमेंसे, बिना कुछ भी आघारके, बन गया है ।  इस परंपराका कुछ-न-कुछ आधार अवश्य होना चाहिये, यह चाहे कितना थोड़ा क्यों न हो या वह गाथाद्वारा तथा शताब्दियोंके उपचयद्वारा चाहे कितना बढ़ा-चढ़ा क्यों न दिया गया हो । और यदि वह ठीक है तो इन कविद्रष्टाओंने अवश्य ही वेदमें अपने गुह्य ज्ञानकी, अपनी रहस्यमय विद्याकी कुछ-न-कुछ बातें व्यक्त की होंगी और वेदमंत्रोंमें ऐसी कुछ वस्तु अवश्य विद्यमान होगी; चाहे वह गुह्य भाषाके द्वारा या प्रसीकोंके कौशलके पीछे कितनी सुगुप्त क्यों न रखी हुई हो और यदि वह वहाँ विद्यमान है तो वह कुछ हदतक उपलभ्य भी  होनी चाहिये  । यह ठीक. है कि बहुत पुरानी भाषा और लुप्तप्राय शब्दोंके कारण (यास्कने चार सौसे ऊपर ऐसे शब्द गिनाये हैं जिनके अर्थ उसे ज्ञात नहीं थे ) तथा एक कठि और अप्रचलित भाषाशैलीके कारण वेदका अभिप्राय अंधकारमें पड़ गया हैं वैदिक प्रतीकोंके अथोंके (जिनका कोष उन्हींके पास रहता था ) खोये जानेसे ये आनेवाली संततियोंके लिये दुर्बोध हो गये । जब कि उप-निषदोंके .कालमें भी उस युगके आध्यात्मिक जिज्ञासुओंको वेदके गुप्त ज्ञानमें प्रवेश पानेके लिये दीक्षा तथा ध्यान (योगाभ्यास ) की शरण लेनी पड़ती थी तो बादके विद्वान् तो किंकर्तव्यविमूढ़ ही हो गये और उन्हें शरण लेनी पड़ी अटकलकी तथा वेदोंकी बौद्धिक व्याख्यापर ही अपना ध्यान केंद्रित करनेकी या इन्हें गाथाओं तथा ब्राह्यण-ग्रंथोंके कथानकों (जो स्वयं प्रायः प्रतीकात्मक तथा अस्पष्ट थे ) द्वारा समझने-समझानेकी । किंतु फिर भी वेदके उस रहस्यकों उपलब्ध करना ही एकमात्र उपाय है जिससे हम वेदके सच्चे अर्थ और सच्चे मूल्यको पा सकेंगे । हमें यास्क मुनिके दिये संकेतको गंभीरतापूर्वक ग्रहण करना चाहिये, वेदके अंदर क्या है इस विषयमें हमें ॠषिके इस वर्णनको की ये "द्रष्टाका ज्ञान हैं, कवि-द्रष्टाके वचन हैं'' स्वीकार करना चाहिये और इस प्राचीन धर्म-ग्रंथके अर्थोंमे प्रवेश पानेके लिये हम जो कोई भी सूत्र प्राप्त कर सकें उसे खोजकर पकड़ना चाहिये । यदि हम ऐसा न करेंगे तो वेद सदाके लिये मुहरबंद पुस्तक ही बने रहेंगे; व्याकरण-विशारद, व्युत्पत्ति-शास्त्री या विद्वानोंकी  अटकलें हमारे लिये इन मुहरबंद कमरोंको कभी. खोल नहीं सकेंगी ।

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क्योंकि यह एक तथ्य है कि वेदबिषयक यह परंपरा कि प्राचीन वेदकी ॠचाओंमें एक गुह्य अर्थ और एक रहस्यमय ज्ञान निहित हैं इतनी पुरानी है जितने कि स्वयं वेद । वैदिक ऋषियोंका यह विश्वास था कि उनके मंत्र चेतनाके उच्चतर गुप्त स्तरोंसे अंत:प्रेरित हुए आये हैं और वे इस गुह्य ज्ञानको रखते हैं । वेदके वचन उनके सच्चे अर्थोमें केवल उसीके द्वारा जाने जा सकते हैं जो स्वयं ऋषि या रहस्यवेत्ता (योगी ) हो, अन्योंके प्रति मंत्र अपने गुण ज्ञानको नहीं खोलते । वामदेव ॠषि अपने चतुर्थ मंडलके. एक मंत्र. ( 4.3.16 ) में .अपने-आपका इस रूपमें वर्णन करता है कि मैं अंतःप्रकाशसे युक्त विप्र अपने विचार (मतिभिः ) तथा शब्दों (उक्यै: ) के द्वारा पथप्रदर्शक ( नीथानि) और गुह्य वचनोंको ( निण्या वचांसि ) व्यक्त कर रहा हूँ,  ये द्रष्टज्ञानके शब्द (काव्यानि) हैं जों द्रष्टा या ऋषिके लिये अपने आंतर अर्थको बोलनेवाले ( कवये निवचना ) हैं । ॠषि दीर्धतमा ॠचाओंके, वेदमंत्रोंके, विषयमें कहता है कि 'ॠचो अक्षरे परमे व्योमन् अस्मिन् देवा अधि विश्वे निषेदु:' अर्थात् ऋचाएँ रहती हैं उस परम आकाशमें जो अविनाश्य व अपरिवर्तनीय है जिसमें सबके सब देव स्थित हैं' और फिर कहता है; कि 'यस्तन्न वेद किमृचा करिष्यति अर्थात् 'वह जो उसको  (उस आकाशको ) नहीं जानता वह ऋषासे क्या करेगा ?'  (ऋग्वेद  1 : 164. 39 )   वह ऋषि आगे चार स्तरोंका उल्लेख करता है जहाँसे वाणी निकलती है, जिनमेंसे तीन तो गुहामें छिपे हुए हैं और चौथा स्तर मानवीय है, और वहींसे मनुष्योंके साधारण शब्द आते हैं, परंतु वेदके शब्द और विचार उन उच्चतर तीन स्तरोंसे संबंध रखते हैं ( 1. 164. 45)  । इसी तरह, अन्यत्र वेद (मंडल 10 सूक्त 71 ) में वेदवाणीको परम ( प्रथमम् ), वाणीका उच्चतम, शिखर ( वाचो अग्रम् ), श्रेष्ठ तथा परम निर्दोष ( अरिप्रम् ) वर्णित किया गया है । यह (वेदवाणी ) कुछ ऐसी वस्तु है जो गुहामें छिपी हुई है और वहाँसे निकलती है और अभिव्यक्त होती है ( प्रथम मंत्र ) । यह सत्यद्रष्टामें, ऋषियोंमें, प्रविष्ट हुई है और इसे उनकी वाणीकी पद्धति  (पदचिह्नों ) का अनुसरण करनेके द्वारा प्राप्त किया जाता है (तीसरा मंत्र ) । परंतु सब कोई इसके गुह्म अर्थमें प्रवेश नहीं पा सकते । वे लोग जो आंतरिक अभिप्राय नहीं जानते ऐसे हैं जो देखते हुए भी नहीं देखते, सुनते हुऐ भी नहीं सुनते; कोई विरला ही होता ह जिसे चाहती हुई वाणी अपने-आपको उसके संमुख प्रकट कर देती है, जैसे कि सुन्दर वस्त्र पहने हुई पत्नी अपने .शरीरको पतिके सामने खोलकर रख देती है ( चौथा मंत्र ) । अन्य लोग जो 'वाणी'के-वेद-रूपी गौके--दूधको स्थिरतया

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पीनेमें अमर्थ होते हैं, उसके साथ यों फिरते है मानो वह गौ दूध देनेवाली है ही नहीं उनके लिये वाणी ऐसे वृक्षके सभान है जो फलरहित और पुष्परहित है ( पांचवां मंत्र ) । वेदका यह सब कथन कितना स्पष्ट और यथार्थ है । इससे संदेहकी कुछ भी गूंजायशके बिना यह परिणाम .निकलता है कि उस समय भी जब ॠग्येद लिखा जा रहा था ॠचाओकें विषयमें यह माना जाता था कि उनका कुछ गुप्त अर्थ है जो सबके लिये खुला नही है । सचमुच पवित्र वेद-मंत्रोंके अंदर एक इस और आष्यात्मिक ज्ञान थी और ऐसा माना जाता था कि उस ज्ञानके द्धारा ही मनुष्य सत्यको जान सकता  है और एक उच्चतर अवस्थामें चढ़ सकता है । यह विश्वास कोई पीछेकी बनी परंपरा नहीं था किंतु इस विश्वासको सैंभवत: सभी ऋषि और प्रत्यक्षत: दीर्धतमा. तथा वामदेव जैसे श्रेष्ठतम ऋषियोंमेंसे कुछ तो अवश्य रखते थे ।

 

तो यह .परंपरा पहलेसे विद्यमान थी और फिर वह. वैदिक कालके पश्चात् भी चलती गयी । एवं हम देखते हैं कि यास्क मुमि अपने निरुक्तमें वेदकी व्याख्याके अनेक संप्रदायोंका उल्लेख करते हैं । एक याझिक अर्थात् कर्मकांडीय व्याख्याका संप्रदाय था, एक ऐतिहासिक था जिसे गाथात्मक व्याख्याका संप्रदाय कहना चाहिये, एक वैयाकरणों तथा व्युत्तिशास्त्रियों, नैरुक्तों एवं नैयायिकोंद्वारा  व्याख्याका संप्रदाय और एक आध्यात्मिक व्याख्याका ।  यास्क स्वयं धोषित करता है कि ज्ञान त्रिविध है, अतएव सब वेदमंत्रोंके अर्थ भी त्रिविध होते हैं, एक अधियज्ञ या कर्मकांडीय ज्ञान, दूसरा अधिदैवत अर्थात् देवतासंबंधी ज्ञान और अतमें आध्यात्मिक ज्ञान; परंतु .इनमें से अंतिम अर्थात् आध्यात्मिक ज्ञानका प्रतिपादक अर्थ ही वेदका सच्चा अर्थ है और जब वह प्राप्त हो जाता है तो शेष अर्थ झड़ जाते या कट जाते हैं । यह आध्यात्मिक अर्थ ही त्राण करनेवाला है,  शेष सब बाह्य और गौण हैं । वह आगे कहता हैं कि ॠषियोंने सत्यको वस्तुओंके सत्य धर्मको आंतर दृष्टिद्वारा प्रत्यक्ष देखा था', कि पीछेसे वह ज्ञान तथा वेदका आंतरिक अर्थ प्रायः लुप्त होते गये और जो थोड़ेसे ऋषि उन्हें तब भी जानते थे उन्हें इसकी रक्षा शिष्योंको दीक्षित करते जानेद्वारा करनी पड़ी और अंतमें वेदार्थको जाननेके लिये बाह्य और अंतमें वेदार्थको जाननेके लिये बाह्य और बौद्धिक उपायोंको जैसे निरुक्त तथा अन्य वेदांगोंको,  उपयोगमें लाना पड़ा । परंतु तो भी,  वह कहता है,  'वेदका सच्चा अर्थ ध्यान-योग और तपस्याके द्वारा ही प्रेत्यक्षत: जाना जा सकता है' और जो लोग इन साधनोंको उपयोगमें ला सकते हैं उन्हें वेदज्ञानके लिये किन्हीं भी बाह्य सहायताओंकी आवश्यकता नहीं | सो यास्कका यह कथन भी पर्याप्त स्पष्ट और निश्चयात्मक है |

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यह परंपरा कि वेदमें एक गुह्य तत्त्व है और वह भारतीय सभ्यता,  भारतीय घर्म, दर्शन तथा संस्कृतिका मूल स्रोत है ऐतिहासिक तथ्यसे अधिक संगत है न कि यूरोपियनोंका इस परंपरागत विचारका उपहास करनेवाला मत । उन्नसविं शताब्दीके यूरोपियन पंडित जो भौतिकताप्रधान तर्कवादके इसके लेखक थे भारतवातिके इतिहासके विषयमें यह मानते थे कि यह एक प्रारंभिक जंगली या अर्द्ध-जंगली अवस्थामेंसे, एक अपरिपक्य सामाजिक जीवन और धर्ममेंसे और अंधविश्वासोंके समुदायमेंसे हुआ विकास है, जो बुद्धि और तर्ककी, कला, दर्शन तथा भौतिक विज्ञानकी, एक अधिक स्पष्ट और सयुक्तिक तथा अघिक तथ्यपरायण बुद्धिकी उन्नति द्वारा विकसित बाह्य सभ्य संस्थाओं, रीति-रिवाजों और आदतोंका परिणाम है । सो वेद-विषयक यह परंपरागत प्राचीन विचार उनके इस चित्रमें ठीक नहीं बैठ सकता था, उसे तो वे प्राचीन अंधविश्वासपूर्ण विचारोंका एक भाग और आदि जंगली लोगोंकी एक सहज भूल ही मानते थे । परंतु अब हम भारतजातिके विकासके विषयमें अधिक ठीक-ठीक विचार बना सकते हैं । यह कहना चाहिये कि प्राचीन आधतर सभ्यताएँ अपने अंदर भावी विकासके तत्त्वोंको रखे हुए थीं पर उनके आदिम सानी लोग वैज्ञानिक और दार्शनिक या ऊँची बौद्धिक तर्कणा-सक्तिवाले लोग नहीं थे किन्तु रस्यवादी थे, बल्कि रहस्य-पुरुष,  गुह्यवादी, धार्मिक जिज्ञासु थे । वे जिज्ञासु थे वस्तुओंके पीछे छिपे हुए सत्य के, न कि बाह्य ज्ञानके । वैज्ञानिक और दर्शिनिक पीछेस आये; उनके पूर्ववर्ती तो रहस्यवादी थे और प्रायः पाइथागोरस तथा प्लेटो जैसे दार्शनिक भी कुछ सीमातक या तो रहस्यवादी थे या उनके बहुतसे बिचार रहस्यवादियोंसे लिये गये थे । भारतमें दार्शनिकता रहस्यवादीयोंकि  जिज्ञासामेंसे ही उदित हुई और भारतीय दर्शनोंने उनके (रहस्यवादियोंके ) आध्यात्मिक ध्येयोंको कायम रखा तथा विकसित किया और उनकी पद्धतियोंमेंसें कुछको आगामी भारतीय आध्यात्मिक शिक्षणमें तथा योगमें भी पहुँचाया । वैदिक परंपरा, यह तथ्य कि वेदमें एक रहस्यवादी तत्त्व है,  इस ऐतिहासिक सत्यके साथ पूरी तरह ठीक बैठती है और भारतीय संस्कृतिके इतिहासमें 'अपना स्थान प्राप्त करतीं है । तो वेदविषयक यह परंपरा कि वेद भारतीय सभ्यताके मूल आधार हैं न कि केवल एक जंगली याज्ञिक पूजा-विधि, केवल परंपरासे कुछ अधिक वस्तु है, यह इतिहासका एक वास्तविक तथ्य है ।

 

वेदोंके दोहरे  और प्रतीकत्मक अर्थ

 

परंतु यदि कहीं वेदमंत्रोंमें उच्च आध्यात्मिक ज्ञानके कुछ अंश या


उच्च विचारोंसे पूर्ण कुछ वाक्य पाये भी जाएँ तो यह कल्पना की जा सकती है कि वे तो शायद वेदका केवल एक स्वल्पसा भाग है, जब कि शेष सब याज्ञिक पूजाविधि ही है, देवताओंके प्रति की गयी प्रार्थना या प्रशंसाके मंत्र हैं जो देयताओंको यज्ञ करनेवालोंपर ऐसे भौतिक वरदानोंकी वर्षा करनेको प्रेरित करनेके लिये बोले जाते थे जैसे कि बहुत-सी गौएँ, घोड़े, लड़ाकू वीर, पुत्र अन्न, सब प्रकारकी संपत्ति, रक्षा, युद्धमें विजय, या फिर आकाशसे वर्षाको ले आनेके लिये, सूर्यको बादलोंमेसे या रात्रिके पंजेसे छुड़ा लानेके लिये, सात नदियोंके खुलकर प्रवाहित होनेके लिये, दस्युओंसे  (या द्रविड़ोंसे ) अपनें पशुओंके छुड़ा लानेके लिये तथा अन्य ऐसे ही वरदानोंके लिये बोले जाते थे जो उपरितलपर इस याज्ञिक पूजाके उद्दिष्ट विषय प्रतीत होते हैं । तब इसके अनुसार तो वेदके ऋषि ऐसे लोग होने चाहिये जो कुछ आध्यात्मिक या रहस्यमय ज्ञानवाले होंगे किन्तु वैसे उस युगके अनुकूल सभी साधारण प्रचलित विचारोंके वशीभूत होंगे । तो इन दोनों ही तत्त्वोंको ऋषियोंने अपने वैदिक सत्यों में धुला-मिलाकर रखा होगा और ऐसा मान लेनेसे कम-से-कम अंशत: इसका भी कुछ कारण समझमें आ' जायगा कि वेदमें इतनी अस्पष्टता, बल्कि इतनी विचित्र और कभी-कभी तो हास्यजनक अस्तव्यस्तता क्यों है, जैसी कि परंपरागत भाष्योंके अनुसार वेदमें हमें दिखाई देती है । परंतु यदि, इसके प्रतिकूल, वेदोंमें उच्च विचारोंका एक बहुत बड़ा समुदाय स्पष्ट दृष्टिगोचर होता हो, यदि मंत्रोंका बहुत बड़ा भाग या समूचे-के-समूचे सूक्त केवल उनके रहस्यमय स्वरूप तथा अर्थोंकों ही प्रकट करनेवाले हों, और अंतत: यदि वेदमें आये कर्मकाण्डी तथा बाह्य व्यौरे निरंतर ऐसे प्रतीकोंका रूप धारण करते पाये जाते हों जैसे कि रहस्यवादियोंद्वारा सदा प्रयुक्त किये जाते हैं और यदि स्वयं सूक्तोंके अंदर ही वैदिक शैलीके ऐसी ही होनेके अनेक स्पष्ट संकेत बल्कि कुछ सुस्पष्ट वचनतक मिलते हों, तब सब कुछ बदल जाता है । तब हम अपने सामने एक ऐसी महान् धर्मपुस्तक पाते हैं जिसके दोहरे अर्थ हैं--एक गुह्य अर्थ और दूसरा लौकिक अर्थ, स्वयं प्रतीकोंका भी वहाँ अपना अर्थ है ओ उन्हें गुह्य अर्थोंका एक भाग, गुह्य शिक्षा तथा ज्ञानका एक तत्त्व बना देता है । संपूर्ण ही ऋग्वेद, शायद थोड़ेसे सूक्तोंको अपवाद-रूपमें छोड़कर, अपने आंतरिक अर्थमें एक ऐसी ही महान् धर्मपुस्तक बन जाता है । साथ ही यह आवश्यक नहीं कि उसका बाह्य लौकिक अर्थ केवल पर्देका ही काम करे, क्योंकि ॠचाएँ उनके निर्माताओं द्वारा शक्तिके ऐसे वचन मानी गयी थीं जो न केवल आंतरिक वस्तुओंके लिये किंतु बाह्य वस्तुओंके लिये भी शक्तिशाली थे । शुद्ध आध्यात्मिक

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धर्मग्रंथ तो केवल आध्यात्मिफ अर्थोंसे अपना वास्ता रखता, किंतु ये प्राचीन रहस्यवादी साथ ही वे भी थे जिन्हें 'आकल्टिस्ट'  (गुप्तविधावित् ) कहना चाहिये, ये ऐसे थे जिनका विश्वास था कि आंतर साधनोंद्वारा आंतरिक ही नहीं किन्तु बाह्य परिणाम भी उत्पन्न किये जा सकते हैं,  विचार और वाणीका ऐसा प्रयोग किया जा सकता है जिससे. इसके द्वारा प्रत्येक प्रकारकी-स्वयं वेदमें प्रचलित मुहावरेमें कहें तो 'मानुषी और दैवी' दोनों प्रकारकी-सिद्धि या सफलता प्राप्त की. जा सकती है ।

 

वैदिक शब्दोंके सीधे,  स्वाभाविक,  स्थायी अर्थ

 

परंतु प्रश्न होता है कि गुह्य अर्थोंका वह समुदाय वेदमें है कहाँ ? वह हमें तभी मिलेगा यदि हम ऋषियोंद्वारा प्रयुक्त शब्दों और शब्द-सूत्रोंको एक स्थिर तथा बिलकुल सीधा अर्थ प्रदान करें, विशेषतया उन कुंजी-रूप शब्दोंको जो ऋषियोंके सिद्धांतोंके इस सारे भवनको उसकी केंद्र-शिलाओंकी तरह धारण करते हैं । ऐसा एक शब्द है महान् शब्द 'ॠतम्' अर्थात् सत्य । सत्य रहस्यवादियोंकी खोजका केंद्रीय विषय था, एक आध्यात्मिक या आंतर सत्य, हमारे अपने आपका सत्य, वस्तुओंका सत्य, जगत्का तथा देवताओंका सत्य, हम जो कुछ हैं और वस्तुएँ जो कुछ हैं उन सबके पीछे विद्यमान सत्य । कर्मकांडीय व्याख्यामें वैदिक ज्ञान के इस 'गुर'-भूत शब्दकी व्याख्या व्याख्याकारकी सुविधा या मौजके अनुसार इसे सभी प्रकारके अर्थोमें लेकर की गयी है--'सत्य', 'यज्ञ', 'जल', 'गया हुआ' और 'अन्न' तक, और जो अनेक अवांतर अर्थ किये गये हैं उनका तो कहना ही क्या है .। यदि हम ऐसे ही अर्थ करेंगे तब तो वेदके साथ हमारे बरतनेमें कोई निश्चितता आ ही नहीं सकती । किंतु हम स्थिर रूपसे इस शब्दको वही प्रधान  ( 'सत्य'का ) अर्थ देकर देखें तो एक अद्भुत किंतु स्पष्ट परिणाम निकलेगा । वदि हम वेदमें स्थिर रूपसे आनेवाले अन्य शब्दोंके साथ भी ऐसे ही बर्ते, यदि हम उनका साधारण, स्वाभाविक और बिल्कुल सीधा जो अर्थ है वही करें और वह अर्थ सतत तथा स्थिर रूपसे करें, उनके अर्थोंको लेकर इधर-उधर कूद-फांद न करें या उनको शुद्ध कर्मकांडी आशय देनेके लिये तोड़े-मरोड़े नहीं, यदि हम कुछ महत्त्वपूर्ण शब्दोंको जैसे 'ॠतु', 'श्रवस्' आदिको उनके वे आध्यात्मिक अर्थ देवें, जिनकी वे क्षमता रखते हैं और जो अर्थ ऐसे संदर्भोंमें जिनमें, उदाहरणार्थ, वेद अग्निका 'क्रतुर्ह्रदि'  कहकर वर्णन करता है,  निःसंदेह हैं ही, तो यह परिणाम और भी अधिक स्पष्ट, विस्तृत ओर व्यापक हो जायेगा | ओर उसके अतिरिक्त यदि हम उन संकेतोंका

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अनुसरण करें जो  बहुतायतसे मिलते हैं,--कई बार तो अपने प्रतीकोंके आंतरिक अर्थोंके विषयमें ॠषियोंके अपने सुस्पस्ट कथन ही मिल जाते हैं-और यदि हम अर्थपूर्ण कथानकों तथा रूपकोंकी व्याख्या उसी अभिप्रायमें करें जिसपर वे बार-बार लौटकर आते हैं, जैसे वृत्र पर विजय तथा वृत्रों  ( वृत्रकी शक्तियों ) के साथ युद्ध, सूर्यकी, जलोंकी और गौओंकी पणियों तथा अन्य वस्तुओंसे पुनर्मुक्ति,  तो संपूर्ण ही ऋग्वेद - अपने-आपको ऐसे सिद्धांत तथा साधनाभ्यासकी पुस्तकके रूपमें प्रकट कर देगा, जो ( सिद्धांत तथा अभ्यास ) निगूढ़ गुप्त, आध्यात्मिक हैं,  ऐसे जैसे कि किसी भी प्राचीन देशके रहस्यवादियोंद्वारा उपदिष्ट हुए हो सकते हैं। परंतु तो इस समय हमारे. लिये केवल वेदमें ही उपलभ्य हैं । ये वहाँ जानबूझकर एक पर्देसे ढककर रखे हुए हैं, परंतु पर्दा इतना घना नहीं है जितना कि हम प्रारंभमें इसे कल्पित करते हैं । हमें केवल अपनी आँखोंको जरा खोलकर देखना होता है और वह पर्दा जाता रहता है, वेदवाणी, सत्य,  बेद मूर्त्त रूपमें हमारे सामने आ खड़ा होता है ।

 

वेदके गुह्य वचन--'निण्या  वचांसि'

 

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 वेदके अनेक मंत्र हैं अनेक समूचे सूक्ततक हैं जो ऊपरसे ही एक रहस्यवादी अर्थको प्रकट करते हैं, स्पष्ट ही एक गुह्य प्रकारके वचन हैं,  एक आंतिरिक अर्थ रखते हैं । जब ऋषि अग्निके विषयमें. कहता है 'सत्यका चमकीला संरक्षक जो अपने निजी धरमें देदीप्यमान हो रहा है'1 अथवा मित्र तथा वरुणके विषयमें या अन्य देवोंके विषयमें कहता है 'सत्यका स्पर्श करनेवाले और सत्यको बढ़ानेवाले'2  अथता 'सत्यमें उत्पन्न हुए'3  तो ये एक रहस्यवादी कविके ही वचन हैं जो वस्तुओंके पीछे छिपे उस आंतर सत्यके विषयमें विचार कर रहा है जिसके प्राचीन संत जिज्ञासु होते थे । तब वह बाहरी अग्नि-तत्त्वकी अधिष्ठातृ-देयता-भूत प्राकृतिक शक्तिका या कर्मकाण्डीय यज्ञकी अग्निका विचार नहीं कर रहा । इसी तरह ऋषि सरस्वतीके विषयमें कहता है कि यह सत्यके वचनोंकी प्रेरयित्री4 और ठीक विचारोंके जगानेवाली है या विचारोंसे समृद्ध है; कि सरस्वती हमें हमारी चेतनाके प्रति जगाती है या हमें 'महान् समुद्रसे'  सचेतन करती है और 

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 1 गोपामृतस्य दीदिविम्,  वर्धमानं स्वे दमे | (1-1-8)

 2 ऋतवृधै ॠतस्पृज्ञौ ।                 ( 1-2-8)

 3 ॠतजातः |                         (1-144-7)

 4  1-3-10, 11. 12

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'हमारे सब विचारोंको प्रकाशित कर देती है', तो निःसंदेह यह नदी-देवता नहीं है जिसकी स्तुतिमें वह सूक्त बोला जा रहा है, ॠषि तो स्तुति, प्रार्थना कर रहा है अंतःप्रेरणाकी शक्तिसे, ( यदि उसे नदी कहें तो ) अंत: प्रेरणाकी नदीसे, सत्यकी वाणीसे, जो हमारे विचारोंमें अपना प्रकाश ला रही है, हमारे अंदर उस सत्यकी,  एक आंतरिक ज्ञानकी, रचना कर रही है । सतत ही देवता अपने आध्यात्मिक व्यापारोंके साथ सामने आ जाते हैं; यज्ञ एक आंतरिक कर्मका, देवों और मनुष्योंके बीच एक आंतरिक लेन-देनका बाह्य प्रतीक है, मनुष्य वह सब कुछ देता है, समर्पित करता है जो उसके पास है और बदलेमें उसे देवता शक्तिके घोड़ोंको' प्रकाशकी गौओंको,  अनुचर होनेके लिये बलके वीरोंको देते हैं और इस प्रकार अंधकार, वृत्रों, दस्युओं औ पणियोंकी सेनाओंके साथ उसके युद्धमें उसे. विजय प्राप्त कराते हैं । जब ऋषि कहता है, ''आओ हम चाहे युद्ध-अश्वके द्वारा या दिव्य शब्दके द्वारा मनुष्यसे परे स्थित शक्तिसे सचेतन बने'' ( 2-2-1०), तो उसके वचन या तो रहस्यपूर्ण अर्थ रखते हैं या उनका कुछ भी संगत अर्थ नहीं है । इस पुस्तकमें ऋग्वेदके जिन अंशोंका अनुवाद दिया गया है उनमें भी ऐसे अनेक रहस्यमय मंत्र हैं और अनेक समूचे सूक्त हैं जो,  वे चाहे कितने रहस्यपूर्ण हों, बाह्य याज्ञिक रूपकके उस पर्देको, जिसने वेदके असली अभिप्रायको ढक रखा है, फाड़ फेंक रहे हैं । ऋषि कहता है, 'विचारमे हमारे लिये मानुषी वस्तुओंको अमृतोंमें, वृहत् द्यलोकोंमें पोषित किया है, यह विचार दूध देनेवाली घेनु है जो अपने-आप अनेकरूप ऐश्वर्यको देती है' ( 2-2-9 ) - अनेक प्रकारके ऐश्वर्योंको, गौओंको घोड़ोंको और अन्य बस्तुओंको जिनकी यज्ञकर्ता प्रार्थना करता है. । स्पष्ट है यह कोई भौतिक ऐश्वर्य नहीं. है, ऐसी  बस्तु है जिसे विचार, मन्त्रमें मूर्त हुआ बिचार, दे सकता है और उसी विचारका परिणाम ही हमारी मानुषी बस्तुओंको अमृतोंमें बृहत् द्युलोकोंमें प्रोषित करता है । यहाँ दिव्यीकरणकी प्रक्रियाका, महान्, और प्रकाशमय ऐश्वर्योंकि, यज्ञकी आन्तरिक क्रियाद्वारा देवोंसे प्राप्त की गयी निघियोंके नीचे उतार लानेकी प्रक्रियाका संकेत दिया गया है, किंतु ऐसे शब्दोंमें जो आवश्यकतावश रहस्यमय हैं, पर फिर भी उसके लिये  इन गुह्य वचनोंको, इन 'निर्णया वचांसि,को, पढ़ना जानता है .काफी अर्थद्योतक है, 'कवये निवचना, हैं । और फिर एक और जगह कहा गया हे कि रात्रि तथा उषा (उषासानक्ता), जो सनातन बहिनें हैं, खूब दूध देनेवाली दुघार गौएँ हैं, दो आनंदपूर्ण बुनकर स्त्रीयोंके समान हैं; जो हमारे पूर्णतायुक्त कर्मोंके तानेको एफ यज्ञके रूपमें (यज्ञस्य पेश: ) चुन रही हैं ( 2-3-6) । फिर ये ऐसे ही

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वचन है जिनका रूप और अर्थ रहस्यवादी हैं, परंतु यज्ञसे आध्यात्मिक रूपको, और गौके, प्रार्थित ऐश्वर्योंके, महान् रयिकी बहुलताके वास्तविफ अर्थको बतलानेवाला इससे अच्छ' निश्चयात्मक कथन कठिमतासे ही मिलेगा ।

 

प्रतीकोंका पर्दा--दोहरे अर्थ

 

अपने आशयको प्रतीकों तथा प्रतीकात्मक शब्दोंद्वारा आवृत करनेकी आवश्यकताके वश-क्योंकि गुप्तता रखनी आवश्यक थी-ऋषियोंने शब्दोंके दोहरे अर्थ नियत करनेकी विधिको अपनाया । यह ऐसी विघि है जिसे संस्कृत भाषामें सुगमतासे ग्रहण किया जा सकता है, क्योंकि वहाँ एक शब्द प्रायः अनेक विभिन्न अर्थोंका वाचक होता है, परंतु उसका अंगरेजी भाषामें अनुवाद करना सुगम नहीं है, प्रायः ही असंभव है । इस प्रकार 'गौ'  शब्द गायके अतिरिक्त 'प्रकाश' का या 'प्रकाशकी किरण' का भी वाचक है । यह कई ऋषियोंके नामोंमें भी प्रयुक्त हुआ दीखता है, जैसे, 'गोतम' अर्थात् प्रकाशिततम, 'गविष्ठिंर'  अर्थात् प्रकाशमें स्थिर । वेदोक्त गौवें सूर्यके गोयूथ हैं जो ग्रीक गाथा-शास्त्र तथा रहस्यवादमें भी सुपरिचित हैं; ये हैं सत्य और प्रकाश और ज्ञानके सूर्यकी किरणें । 'गौ' के इस अर्थको जो कुछ प्रकरणोंमें स्पष्ट ही दृष्टिगोचर होता है सर्वत्र ही संगत रूपसे लगाया जा सकता है और इससे सुसंबद्ध अर्थ बनता जायगा । 'घृत, शब्दका अर्थ. है घी, निर्मल किया हुंआ मक्खन और यह याज्ञिक क्रियाके मुख्य साधनोंमेसे एक. था; परंतु घृतका अर्थ भी प्रकाश हो सकता है, यह 'घृ क्षरणदिप्तयो:' घातुसे बना है और प्रकाशके अर्थमें अनेक स्थलोंपर वेदमें प्रयुक्त हुआ है । जैसे द्युलोकके अधिपति इंद्रके घोड़ोकें विषयमें कहा गया है कि ये 'घृतस्नू'1  हैं ( 3.41.9 ) अर्थात् प्रकाशसे सने हुए-इसका निश्चय ही यह अर्थ नहीं कि वे घोड़े जब दौड़ते थे तो उनसे घी चूता था, यद्यपि इसी विशेषण 'घृतस्नूवः' का यह अर्थ ही प्रतीत होता है जब कि यह उस अन्न-घान्यके लिये प्रयुक्त हुआ है जिसका यज्ञमें आकर भाग लेनेके लिये इंद्रके घोड़े आहूत किये गये हैं । स्पष्ट ही यज्ञंके प्रतीकवादमें घृत शब्ब-- 

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    1 यद्यपि. सायण कई स्थलोंपर घृतको प्रकाशके ही अर्थमें लेता है तथापि यहां वह घृतका अर्थ पानी ( जल ) करता है । वयह समक्षता प्रतीत होता है कि वे  (इन्दके ) दिव्य घोड़े वहुत थक गये थे और उनसे पसीनेका पानी च रहा था । इसी तरह कोई प्रकृतिवादी व्याख्या करनेवाला यह तर्क कर सकत है कि क्योंकि इंद्र अंतरिक्षका देवता है इसलिये उस पुराने युगका कवि यह विश्वास रखता था कि वर्षा इन्द्रके घोड़ोंका पसीना ही होती है  ।

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इस प्रकाशके अर्थके साथ घीके अर्थको जोड़कर-दोहरे अर्थमें प्रयुक्त हुआ है । विचारकी या विचारके अभिव्यंजक शब्दकी शुद्ध घीसे तुलना की गयी है, और 'घिय घृताचीम्'  ( अर्थात् प्रकाशमय विचार या समझ ) जैसे प्रयोग हमें मिलते हैं । ॠ० 2-3-2 में एक विचित्र वाक्य आया है जिसमें अग्निको यअके पुरोहितके रूपमें पुकारा गया है कि वह आकर हविको घृत चुवानेवाले मनसे ( घृतप्रुषा मनसा ) सिक्त करे और इस प्रकार घामों ( स्थानों या स्तरों ) को, एकैकशः तीनों द्युलोकोंको तथा देवोंको अभिव्यक्त करे1 । परंतु घी चुवानेवाला मन क्या होगा और घी चुवानेके द्वारा कैसे कोई पुरोहित देवताओंको और त्रिविध द्युलोकोंको अभिव्यक्त कर सकता है ? पर घृतके रहस्यमय तथा आंतरिक अर्थको स्वीकार कीजिये और तब सारा आशय स्पष्ट हो जायगा । ऋषि जो .कहना चाहता है वह है 'प्रकाशकी वर्षा करनेवाला मन', प्रकाशित या प्रकाशप्राप्त मनकी निर्मलता लानेकी क्रिया । और यह कोई मनुष्य-पुरोहित नहीं है और न ही यह भौतिक यज्ञका अग्नि है, किंतु एक आंतरिक ज्वाला है, रहस्यमय द्रष्टृ-संकल्प, कवित्रुय है और वह निश्चय ही इस प्रक्रियाद्वारा देवों और लोकोंको तथा सत्ताके सब स्तरोंको अभिव्यक्त कर सकता है । हमें यह स्मरण रखना चाहिये कि वैदिक ऋषि न केवल संत थे किंतु द्रष्टा भी थे, वे ऐसे दिव्यदृष्टिसंपन्न थे कि वस्तुओंको अपने ध्यानमें आकृतियोंके रूपमें देखते थे, प्रायः ऐसी प्रतीकात्मक आकृतियोंके रूपमें जो किसी अनुभूतिकी पूर्ववर्ती या सहवर्ती हो सकती थीं और साथ ही वे इस अनुभूतिको मूर्त रूपमें उपस्थित भी करते थे, उसके विषयमें पहलेसे बता सकते या उसे गुह्य मूर्ति प्रदान कर सकते थे । इस प्रकार वैदिक ऋषिके लिये यह सर्वथा सम्भव था कि वह एक साथ ही आन्तरिक. अनुभूतिको और आकृतिके रूपमें इसकी प्रतीकात्मक घटनाको देख सके, निर्मलताकारक प्रकाशके प्रवाहको और 'इस धृत ( घी ) को पुरोहित देव आन्तरिक आत्म-हविपर (जिसने उस अनुभूतिको जन्म दिया है ) उंडेल रहा है इस घटनाको' एक साथ देख सके । यह बात बेशक पाश्चात्य मनको विचित्र लगेगी परन्तु भारतीय मनके लिये, जो भारतीय परम्पराका अभ्यस्त होता है या ध्यान तथा गुह्य दर्शनमें समर्थ है, पूरी तरह समझमें आने योग्य है । रहस्यवादी प्रतीकवादी होते थे और अब भी साधारणतया होते हैं;. वे सब भौतिक वस्तुओं और. घटनाओंतकको आन्तरिक सत्यों तथा सद्वस्तुओंके ही प्रतीक-रूपमें देख सकते हैं, अपने बाह्य 

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 1 यह सायणकृत अनुवाद है जो सीधा शब्दोंसे ही निकलता है ।

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स्वरूपों अपने जीवनकी बाह्य घटनाओं तथा अपने चारों तरफ तो कुछ  है उसतकको । इससे एक वस्तु और उसके प्रतीकके विषयमें उनका तादात्म्य-करण या फिर साहचर्य-सम्बन्ध-स्थापन सहज हो जाता है,  इसका अभ्यास संभव हो जाता है ।

 

वेदके अन्य स्थायी शब्दों  और प्रतीकोंके अर्थकी भी इसी प्रकारकी व्याख्या की जानी उचित है । जैसे वैदिक 'गौ' ( गाय ) प्रकाशका प्रतीक है, वैसे वैदिक अश्व ( घोड़ा ) शक्तिका; आध्यात्मिक सामर्थ्यका,  तपस्याके बलका प्रतीक है । जय ऋषि 'अश्व-रूपवाले और गौएं जिसके आगे हैं ऐसे दानं' 1  को अग्निसे मांगता है तो वह वस्तुतः कुछ सौ-पचास घोड़ोंके समुदायको जिनके आगे कुछ गौवें चल रही हों दान-रूपमें नहीं मांग रहा होता,  किन्तु वह मांगता है आध्यात्मिक शक्तिके महापुंजको जो प्रकाशद्वारा परिचालित हो या 'किरण-गौ जिसके आगे-आगे2 चल रही हो,',--ऐसा अनुवाद हम 'गोअग्र'का कर सकते हैं । जैसे एक सूक्तमें पणियोसे मुक्त किये गये किरणोंके समुदायको 'गव्यम्' (गौवें, चमकीला गोयूथ ) कहा गया है, वैसे दूसरे सूक्तमें अग्निसे 'अश्व्य्' (अश्वकी शक्ति, उसके पुंज या प्राचुर्य ) की प्रार्थना को गयी है । इसी तरह ॠषि कभी वीरोंकी या अपने अनुचर योद्धाओंकी प्रार्थना करता है तो कभी अपेक्षया अमूर्त भाषामें और बिना प्रतीकके पूर्ण योद्धृबलकी, 'सुवीर्य' की प्रार्थना करता है; कभी वह प्रतीक और वस्तुको जोड़ देता है । इसी तरह ऋषि देवताओंसे जिस ऐश्वर्यकी प्रार्थना करते हैं उसके एक तत्त्वके रूपमें के पुत्र या पुत्रोंकी या सन्तान, 'अपत्य',की याचना करते हैं, पर यहाँपर भी एक गुह्य अर्थ देखा जा सकता है, क्योंकि कुछ संदर्भोमें हमारा उत्पन्न हुआ पुत्र स्पष्ट ही किसी आन्तरिक जन्मका रूपक है : अग्नि स्वयं हमारा पुत्र होता है, हमारे कर्मोंका अपत्य, वह सुनू जो विश्वमय अग्निके रूपमें अपने पिताका भी पिता है, और अच्छे फल या परिणामवाली, स्वपत्य', वस्तुओंपर पैर रखनेसे ही हम सत्यके उच्चतर लोकका पथ खोज लेते या निर्मित कर लेते हैं (1-72-9) । फिर 'जल'. भी वेदमें एक प्रतीकके तौरपर प्रयुक्त हुआ है । 'सलिलम् अप्रकेतम्' ( झानरहित जल ) यह निश्चेतन समुद्रके लिये कहा गया है जिसमें परमेश्वर निवर्तित हुआ है और जिसमेंसे वह अपनी महिमाद्वारा उत्पन्न होता है (10-120-3) 'महो अर्ण': (महान् समुद्र)  कहा गया है ऊपरके 

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1 गोअग्राम् अश्वपेशसं रातिम् (2. 2.13) ।

2 तुलना करो 'आर्य'को 'ज्योतिरग्र'  कहा गया है--ज्योति द्वारा नीयमान ।

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समुद्रके लिये जिसे-जैसा कि एक जगह ( 1-3-12) आया है--सरस्वती हमारे लिये प्रचेतित कर देती है ( प्रचेतयति ) या जिससे वह हमें अन्तर्ज्ञानकी किरणके द्वारा (केतुना ) सचेतन कर देती है । प्रसिद्ध सात नदियोंके विषयमें ऐसा प्रतीत है कि ये उत्तर भारतकी नदियां है,  परन्तु वेद वर्णन करता है सात महती दिव्य नदियोंका ( सप्त यह्वी: )  जो द्युलोकसे नीचे उतरती हैं, ये  ऐसे जल हैं जो मानते हैं, जो सत्यके ज्ञाता, 'ऋतज्ञाः' हैं और जब थे मुक्त होते हैं, वे हमारे लिये महान्  द्युलोकोंके पथको ढूँढ़ देते हैं .। इसी तरह पराशर ऋषि ज्ञान तथा विश्वव्यापी प्राणके विषयमें कहते है कि यह 'जलोंके धरमें' है । इन्द्र वृत्रका वध करके वर्षाको मुक्त करता है, पर यह वर्षा भी दिव्य वर्षा है जो द्युलोकसे आती है और यह सात नदियोंको प्रवहमान कर देती है । इस प्रकार जलोंकी मुक्तिकी गाथा जिसका वेदमें इतने अधिक स्थानोंपर वर्णन है एक प्रतीकात्मक कथाका रूप धारण  कर लेती है । इसीके .साथ दूसरी प्रसिद्ध प्रतकात्मक गाथा आती है जिसमें देवताओं और अंगिरस् ऋषियोंके द्वारा पर्वतकी अंधेरी गुफामेंसे सुर्यकी, उसकी गैओं या उसके गोयूथकी अथवा सूर्यलोक-स्वर्-की खोज एवं पुनरुद्धारका वर्णन है । सूर्यका  प्रतीक सतत रूपसे उच्चतर प्रकाश और सत्यके साथ सम्बन्धित है: निम्न कोटिके सत्यके द्वारा ढके हुए सत्य में ही सूर्यके घोड़े खोल दिये जाते हैं : महान् गायत्री .मंत्रमें हमारे विचारोंको प्रेरित करनेके लिये जिसका आवाहन किया गया है वह अपने उच्चतम प्रकाशमें स्थित सूर्य ही है । इसी प्रकार वेदमें शत्रुओंके विषयमें कहा गया है कि ये लुटेरे हैं दस्यु हैं, जो गौओंको चुरा लेते हैं या ये हैं वृत्र और वेदकी साथारण व्याख्यामें इन्हें बिल्कुल मनुष्य-शत्रु ही मान लिया गया है, परंतु वृत्र एक असुर है जो प्रकाशको  ढकता है और जलोंको रोके रखता है और वृत्रलोग (वृत्रा: ) उसकी शक्तियाँ हैं जो इस व्यापारको सम्पन्न करती हैं । दस्यु अर्थात् लुटेरे या विनाशक हैं अंधकारकी शक्तियां के प्रकाश और सत्यके उपासकोंका विरोध करनेवाली है । सदा ही वेदमें ऐसे संकेत विद्यमान हैं जो हमें बाह्य और ऊपरीसे एक आन्तरिक और. गुह्य अर्थकी तरफ ले जाते  हैं ।

 

उपनिषदोंकी वेदव्याख्याका एक उदाहरण

 

सूर्यके प्रतीकके सम्बन्धमें पंचम-मंडलस्थ एक सूक्तके एक महत्त्वशाली और अत्यंत अर्थपूर्ण मन्त्रका यहां उल्लेख कर देना ठीक होगा.  क्योंकि यह न केवल वैदिक कवियोंके गंभीर रहस्यमय प्रतीकवादको दिखलाता है बल्कि

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यह भी दिखलाता है कि उपनिषदोंके रचयिताओंने ॠग्वेदको कैसा ठीक समझा था और यह उनकी अपने पूर्वज ( वैदिक ) ऋषियोंकि अन्तःप्रेरित ज्ञान (वेद) में श्रद्धाको उचित ठहराता है । वेदमंत्र (5-62-1 ) कहता है कि 'सत्यसे ढका हुआ एक सत्य है जहां वे सूर्यके थोड़ोंको खोल देते हैं । दस शत इकट्ठे ठहरे, वहां वह एक2 था | मैंने सशरीर देवोंमेंसे महत्तम ( श्रेष्ठ, सबसे अधिक महिमाशाली) को देखा3' । अब देखिये कि उपनिषद्का ॠषि इस विचारको, इस रहस्यमय वचनको अपनी निजी पीछेकी शैलीमें किस प्रकार अनूदित करता है, वह सूर्यके केंद्रीय प्रतीकको तो वैसा ही कायम रखता है परंतु अर्थमें किसी प्रकार की गुप्तता नहीं बरतता । ईशोपनिषद्का यह वचन इस प्रकार है ''सत्यका मुख ढका हुआ है एक सुनहरे पात्रसे, हे पूषन्, तू उसे हटा दे सत्यके नियम ( धर्म ) की दृष्टिके लिये4 । हे पूषन्, एक ऋषि, हे यम; हे सूर्य, हे प्रजापतिफे पुत्र, अपनी किरणोंका व्युहन कर और उन्हें एकत्रित कर : मैं उस प्रकाशको देखता हूँ जो तेरा वह उत्कृष्टतम ( कल्याणतम) रूप है ;  यह जो पुरुष है यह मैं हूँ'3 |  सुनहरे पात्रसे मतल वही है जो .वेदमंत्रमें कहे निम्न कोटिके आवरक सत्य,  'ॠतेन'का है । वेदमंत्रका 'देवानां श्रेष्ठं वपुषाम्' उपनिषद्के ( सूर्यके ) 'कुल्याणतम रूप'के समान है;, यह परम प्रकाश है जो समस्त बाह्य प्रकाशसे भिन्न और बृहत्तर है । उपनिषद्को महावाक्य 'सोऽहमस्मि'  वेदके 'तदेकं' (वह एक) के अनुरूप है | 'दशशतका इकट्ठा ठहरना'-- (सायण भी कहता है  कि ये सूर्यकी किरणें हैं और वही प्रत्यक्षतः अभिप्राय है )--ईसे ही उपनिषद्की सूर्यके प्रति की गई प्रार्थनामें ''किरणोंका व्युहन करो और उन्हें एकत्र करो (जिससे कि परम रूप दृष्टिगोचर हो सके )''  इस रूपमें ले आया गया है । इन दोनों ही ( वेद और उपनिषद्के ) सन्दर्भोंमें, वेदमें सतत रूपसे ही और उपनिषदमें प्रायश:,सूर्य परस सत्य और ज्ञानका अधिदेवता है और उसकी किरणें वह प्रकाश हैं जो उस परम सत्य और ज्ञानसे निकलता है । इस उदाहरणसे--और ऐसे और भी अनेक उदाहरण हैं-यह स्पष्ट है कि उपनिषदेके ॠषिको अपने प्रभूत पाण्डित्य सहित मध्यकालीन,  कर्मकांडी टीकाकारकी अपेक्षा प्राचीन वेदके अर्थ और 

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1. ॠतेन ॠतुमपिहितं ध्रु वं वां सूर्यस्य यत्र विमुचन्त्यन् ।

  दश शता सह तस्थुस्तदेर्क देवानां श्रेष्ठं वपुषामपश्यम् ।।

2. अयवा यह ( परम सत्य ) एक था |

3. अथवा इसका अर्थ है 'मैंने देवोंके शरिरोंमेंसे महत्तम ( श्रेष्ठ)  को देखा'

4. अथवा सत्यके नियमके लिये, दृष्टिके लिये |

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अभिप्रायका, अधिक सच्चा ज्ञान था और आधुनिक तथा बहुत भिन्न प्रकार-के मनवाले योरोपियन विद्वानोंकी अपेक्षा तो बहुत ही अधिक सच्चा ।

 

कुछ शब्दोंके आध्यात्मिक अर्थ

 

कतिपय आध्यात्मिक शब्द हैं जिन्हें कि हमें सतत रूपसे उनके सच्चे व ठीक अर्थमें लेना होगा यदि हमें वेदके आन्तरिक या गुह्य अर्थका पता लगाना अभीष्ट है । सत्य,  'ॠतं', के अतिरिक्त हमें 'घी' शब्दको जो मंत्रोंमें बारबार प्रयुक्त हुआ है सदा 'विचार' के अर्थमें लेना होगा । 'घी' शब्दका,  जो बादके 'बुद्धि' शब्दके अनुरूप है, स्वाभाविक अर्थ यही है । इसका अर्थ है विचार समझ, प्रज्ञा और बहुवचनमें  'अनेक विचार' (घिय:) । साधारण व्याख्याओंमें इस शब्दके भी सब प्रकारके अर्थ किये गये हैं-  'जल', 'कर्म, 'यज्ञ', 'अन्न'  आदि, और ऐसे ही विचार भी । परंतु हमें अपनी खोजमें इसे स्थिरतया इसके साधारण और स्वाभाविक अर्थ ( विचार ) में ही लेना है और देखना है कि इससे क्या परिणाम निकलता है । 'केतु' शब्दका बहुत सामान्य अर्थ 'किरण' होता है, परन्तु यह बुद्धि, निर्णय या बौद्धिक बोधका अर्थ भी रखता है । यदि वेदके उन वचनोंकी हम तुलना करें जिनमें 'केतु' शब्द आया है तो हम इस परिणामपर पहुँच सकते हैं कि इसका अर्थ बोधकी या अन्तर्ज्ञानकी किरण है; जैसे उदाहरणके  तौरपर, अन्त:स्कुरित ज्ञानकी किरणसे ही (केतुना)  सरस्वती हमें महान् समुद्रसे सचेतन करती है; उन किरणोंका भी संभवत: यही अभिप्राय है जो ऊपर स्थित परम आधारसे आती हैं और नीचेकी ओर प्रेरित की जाती हैं; वे हैं ज्ञानकी अन्त:स्कुरणायें,. सत्य और प्रकशके सूर्यकी किरणें । एवं 'ॠतु' शब्दका साधारण अर्थ है 'कर्म' या 'यज्ञ'  परंतु इसका अर्थ प्रज्ञा, बल या निश्चय और विशेषतया प्रज्ञाका वह बल जो कर्मका निर्धारण करता है, अर्थात् 'संकल्प' भी होता है । इस अन्तिम अर्थ अर्थात् संकल्पके अर्थमें ही हम इस शब्दको वेदकी गुह्य व्याख्या करनेमें ग्रहण कर सकते हैं । क्योंकि अग्निको द्रष्टृसंकल्प, र्कविकृत:' कहा गया है, अग्नि 'हृदयका संकल्प' (कत्रुर्ह्रुदि ) 1  है । और अन्तमें 'श्रवः' शब्द है जो वेदमें सतस रूपसे आता है और जिसका अर्थ 'कीर्ति' है,  टीकाकारोंने इसे 'अन्न' अर्थमें भी लिया है, पर इन अर्थोंको सर्वत्र नहीं किया जा सकता और बहुत करके इनसे कुछ बात नहीं बनती और वाक्यमें एकान्वयका बल भी नहीं आता । परंतु 

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. 1. वैसे, 4-10-1, 4-41-1

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'बवस् 'श्रु श्रवणे'से (श्रु धातुसे जिसका अर्थ 'सुनना' है ) बना है और स्वयं 'कन' ( श्रवणेंद्रिय) के अर्थमें, तथा मंत्र या प्रार्थनाके अर्थमें-और इस अर्थको सायण भी स्वीकार करता है-प्रयुक्त हुआ है और इससे हम अनुमान कर सकते हैं कि इसका अर्थ 'सुनी हुई वस्तु' है या उसका परिणामभूत ज्ञान जो हमें श्रवणके द्वारा प्राप्त होता है । ऋषिगण अपने-आपको 'सत्यश्रुत': अर्थात् 'सत्यके सुननेवाले'  कहते हैं और इस श्रवण द्वारा प्राप्त ज्ञानको. 'श्रुति' नामसे पुकारते हैं । सो वेदकी गुह्य व्याख्या में हम 'श्रव:' शब्दको अन्तःप्रेरणा या अन्त:प्रेरित ज्ञानके 'अर्थमें ही ले सकते हैं. और हम देखते हैं कि यह पूर्ण संगतिके साथ सब जगह ठीक बैठता है । एवं जब ऋषि 'श्रवांसि' के विषयमें कहता है की उन्हें ऊपरकी तरफ ले जाया--जाता है और नीचेकी तरफ लाया जाता है तो वह 'अन्न' या, 'कीर्ति'  के विषयमें लागू नहीं हो सकता परंतु यह बिल्कुल संगत और अर्थपूर्ण हो जात है यदि ऋषि यह अन्त:प्रेरणाओंके लिये कह रहा है कि वे ऊपर सत्यतक चढ़ जाती हैं और सत्यको नीचे हमतक..ले आती हैं। इसी पद्धतिको हम वेदमें सर्वत्र लागू कर सकते हैं ? । परंतु इस विषयको हम यहाँ और अधिक विस्तार नहीं दे सकते । इस प्राक्कथनकी लघु सीमाओंके अन्दर ये संक्षिप्त निर्देश ही पर्याप्त होने चाहिये;. इन निर्दोशोंको देनेका यहाँ प्रयोजन यही है की इनसे पाठकको वेदकी व्याख्याकी गुह्यार्थ-पद्धतिके विषयमें प्रारम्भिक अन्तर्दृष्टि,  अन्तःप्रवेशार्थ ज्ञान दिया जा सके ।

 

वेदका गुह्य आशय

 

तो फिर वह गुप्त अर्थ, वह गुह्य आशय क्या है जो वेदके इस प्रकारके अध्ययनके द्वारा निकलता है ? यह वही है जिसकी हम सभी जगहके रहस्य-वादियोंकी जिज्ञासाके स्वरूपसे अपेक्षा करेंगे | और वह वही है जिसकी भारतीय संस्कृतिके विकासकी .वास्तविक पद्धतिसे भी हमें अपेक्षा करनी चाहिये, अर्थात् आध्यात्मिक सत्यका प्रारम्भिक रूप जो उपनिषदोंमें अपनी पराकाष्ठाको पहुँच गया । वेदका गुह्य ज्ञान ही वह बीज है के पीछे जाकर वेदान्तके अंदर विकसित हुआ । बिस विचारके चारों ओर शेष सब केंद्रित है वह है सत्य, प्रकाश, अमरत्वकी खोज । एक सत्य है जो बाह्य सत्ताके सत्यसे गम्भीरतर और उच्चतर है 'एक प्रकाश हैं जो मानवीय समझके प्रकाशसे बुहत्तर और उच्चतर है एवं जो अंतःप्रेरणा तथा स्वतः- प्रकाशन (इलहाम ) द्रारा आता है, एक अमरत्व है जिसकी तरफ आत्माको उठना है । इसके लिये हमें अपना रास्ता निकालना है,  इस सत्य  और

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अमरत्वके स्पश ( सम्पर्क ) में आनेके लिये ( ॠत सपन्तः अमृतम्'1 ), सत्यमें उत्पन्न होनेके लिये, उसमें बढ़ानेके लिये, सत्यके लोकमें आत्मतः आरोहण करने और उसमें निवास करनेके लिये । ऐसा करना परमेश्वरके साथ अपनेको युक्त करना है और मर्त्य अवस्थासे अमरत्यमें पहुँचजाना है । यह वैदिक रहस्यवादियोंकी प्रथम और केंद्रीय शिक्षा हैं | प्लेटोके अनुयायी, जिन्होंने अपने सिद्धांतको प्राचीन रहस्यवादियोंसे लेकर विकसित किया था, मानते थे कि हम दो लोकोंके संबंधमें रहते हैं--एक उच्चतर सत्यका लोक जिसे आध्यात्मिक जगत् कहा जा सकता है और दूसरा जिसमें हम रहते हैं, शरीरधारी आत्माका लोक जो उच्चतर लोकसे ही निकला है किंतु जो उसका अवर कोटिके सत्य और अमर कोटिकी चेतनामें अपभ्रंश है । वैदिक रहस्यवादी इस सिद्धांतको अधिक मूर्त्त और अधिक व्यावहारिक रूपमें मानते थे, क्योंकि उन्हें इन दोनों लोकोंका अनुभव प्राप्त था । यहां इस लोकका एक अवर कोटिका सत्य है जो बहुतसे अनृत और भ्रांतिसे ( अमृतस्य भूरे:, 7-60-5 ) मिश्रित है और वहां एक सत्यका धर या लोक ( सदनम् ॠतस्य, 1-164-47 ; 4-21-3) है 'सत्यम् ॠतं बृहत्' है ( अथर्व० 12-1-1 ) जहाँ सब कुछ सत्य-सचेतन है, ॠत-चित् है, ( 4-3-4) । इन दोनोके बीचमें त्रिदिवतक (त्रिविध द्युलोकोंतक ) अनेक लोक हैं और उनके प्रकाश हैं परंतु यह है उच्चतम प्रकाकका लोक, सत्यके सुर्यका लोक, स्वर्लोक या बृहत् द्यौ । हमें उस बृहत् द्युौको  ले जानेवाले मार्गकी खोज करनी है, सत्यके मार्गकी, 'ॠततस्य पंथा'की, जैसे की उसे कई बार कहा गया है, देवोंके; मार्ग'की । यह हुआ रहस्यवादियोंका दूसरा सिद्धांत । तीसरा सिद्धांत यह है कि हमारा जीवन सत्य और प्रकाशकी शक्तियों, अर्थात् अमर देवों, तथा अंधकारकी शक्तियोंके बीच चलनेवाला युद्ध है । ये अंधकारकी शक्तियां विविध नामोंद्वारा पुकारी गयी हैं--वृत्र या वृत्राः, बल, पणय:, दस्यु  तथा उनके राजगण । इन अंधकारकी शक्तियोंके विरोधको नष्ट करनेके लिये हमें देवोंकी सहायताकी पुकार करनी होती है क्योंकि ये विरोधी शक्तियां हमारे प्रकाशको छिपा देती हैं या इसे हमसे छीन लेती हैं, क्योंकि ये सत्यकी धाराओं ( 'ॠतस्य धारा:', अ 5-12-2 तथा 7-43-4), द्युलोककी धाराओंके बहनेमें बाधा डालती हैं और आत्माकी उर्ध्वगतिमें प्रत्येक प्रकारसे बाधक होती है । हमें आंतरिक यज्ञके द्वारा देवताओंका आवाहन करना है और शब्द द्वारा उन्हें अपने अंदर पुकार लाना है-मंत्र ( शब्द) में ऐसा कर

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1. 1-68-2

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सकनेकी विशेष शक्ति होती है--और उन्हें यज्ञकी हविकी भेंट अर्पण करनी है और इस यज्ञिय दानके द्वारा उनसे आनेवाले प्रतिदानको सुरक्षित कर लेना है जिससे इत प्रक्रियाके द्वारा हम लक्ष्यकी तरफ अपने आरोहणके मार्गका निर्माण कर सकें । बाह्य यज्ञके तत्त्वोंको वेदमें आंतरिक यज्ञ और आत्म-हवि ( आत्म-समर्पण ) के प्रतीकोंके, रूपमें प्रयुक्त किया गया है; हम जो कुछ हैं और हमारे पास जो कुछ है उसे हम देते, प्रदान करते हैं जिससे दिव्य सत्य और ज्योतिके ऐश्वर्य हमारे जीवनमें अवतरित हो सकें ओर सत्यके अंदर हमारे आंसरिक जन्मके तत्त्व बन सकें-एक सच्चा विचार, एक सच्ची समझ, एक सच्ची क्रिया हमारे अंदर विकसित होनी चाहिये जो उस उच्चतर सत्यका विचार, प्रेरणा और क्रिया हो 'ॠतस्य प्रेषा; ॠतस्य धीति:' ( 1- 68-3 ) और इसके द्वारा हमें अपने-आपको उस सत्यके अंदर निर्मित करना चाहिये । हमारा यज्ञ एक यात्रा है, तीर्थयात्रा है और एक युद्ध है-देवोंके प्रति गमन है और हम भी उस यात्राको करते है अग्निको, आंतरिक ज्वालाको अपना मार्गशोघक और नेता (अग्रणी ) बनाकर । हमारी मानवीय वस्तुएं उस रहस्यमय अग्निके द्वारा अमर सत्ताके अंदर बृहत् द्यौके अंदर उठायी जाता हैं, उठाकर ले जायी जाती हैं और दिव्य वस्तुएं हमारे अंदर नीचे उतरकर आती हैं । जैसे ऋग्वेदका सिद्धांत ही वेदांतकी शिक्षाका बीज है, वैसे ही वेदका आतंरिक अभ्यास और क्रिया पिछेके योगाभ्यास और योग-क्रियाका बीज है । और अंतमें, वैदिक रहस्यवादियोंकी शिक्षाका चरम शिखर हैं एक वस्तुसत्ताका रहस्य, 'एकं सत्' ( 1-164-46)  या तत् एकम्' ( 10-129-2), जो उपनिषद्का महावाक्य ( केंद्रीय वचन ) बन गया । सब देव प्रकाश और सत्यकी शक्तियां, एक (देव ) के ही नाम और शक्तियाँ हैं, प्रत्येक देव स्वयं सब देवता है और उन्हें अपनेमें रखे हुए है । वह एक सत्य है, तत्त् सत्यम्'  ( 3-39-5, 4-54-4 तथा 8-45-27 इत्यादि ) और एक आनंद है जिसपर हमें पहुँचना हैं । परंतु फिर भी वेदमें यह अधिकतर पर्देके पीछेसे दिखाई देता है । इस विषयमें और भी बहुत कुछ वक्तव्य है परंतु सिद्धांतका सार,  हार्द यही है ।

 

 इस ग्रन्थमें वेदमंत्रोंका जो अनुवाद दिया गया है वह पूरा-पूरा शब्दशः अनुवाद नहीं है अपितु एक साहित्यिक अनुवाद है । परंतु इस अनुवादमें शब्दोकें अर्थ एवं आशय के प्रति और विचारकी रचनाके प्रति पूरी-पूरी निष्ठा रखी गयी है : वस्तुत: पद्धति ही यह वरती गयी है कि वास्तविक भाषाका बिनाकुछ भी नमक-मिर्च लगाये, बहुत सावधानपूर्वक यथातथ

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अनुवाद करनेसे प्रारंभ किया जाय और व्याख्याके आधारके रूपमें इसीका निरंतर अनुसरण किया जाय; क्योंकि केवल इसी प्रकारसे हम इन प्राचीन रहस्यवादियोंके वास्तविक विचारोंका पता निकाल सकते हैं । परंतु ऋग्वेदके सूक्तों जैसी महान् कविताका, जो अपने रूपकों और अलंकारोंमें शोभाशैलिमें है, अपनी लयमें उदात्त और सुन्दर है, अपनी भाषाशैलीमें पूर्ण है,  कोई भी अनुवाद-यदि उसे केवल एक मृत पाण्डित्य-कृति ही न रहना हो--उसकी काव्यशक्तिकी कम-से-कम एक मन्द-सी प्रतिध्वनिको करनेवाला तो होना ही चाहिये । इससे अधिक तो एक गद्यानुवादमें और एक दूसरी भाषामें किया ही नहीं जा सकता । आङ्गलभाषा और वैदिक संस्कृतकी पदावलि एवं वाक्यरचना दो नितान्त भिन्न ध्रुव है; ऋषियोंकी शैली और उनके स्वाभाविक लेखनके भावकी कुछ सीमातक पहुँचनेके लिये अनुवादकको सतत ही वेदके संकेन्द्रित वचनको एक अधिक शिथिल और अधिक क्षीण रूपमें ले आना होता है । अनुवादककी एक दूसरी बड़ी कठिनाई वेदमें सर्वत्र पायी जानेवाली द्वघर्थकता है जिसमें एक ही शब्दद्वारा प्रतीक और प्रतीकसे अभिप्रेत वस्तु दोनों अभिहित होते हैं; जैसे प्रकाश-किरण और गौ, मनका निर्मल प्रकाश तथा साफ किया हुआ मक्खन (घृत ), घोड़े और आध्यात्मिक शक्ति । अनुवादकको ऐसी शब्दावलिका जैसे 'प्रकाशके गोयूथ' या 'चमकती हुई गौएँ' आविष्कार करना पड़ता है या अन्य ऐसी विधि प्रयोगमें लानी होती है जैसे किन्हीं शब्दोंको मोटे अक्षरोंमें लिखना मोटे अक्षरोंमें 'घोड़ा' लिखनेसे यह पता लग जाता है कि यहाँ प्रतीकात्मक घोड़ा ही अभिप्रेत है न कि साधारण घोड़ा-नामक एक भौतिक पशु । परंतु बहुत बार प्रतीकको छोड़ ही देना होता है या फिर प्रतीकको कायम रखा जाता है और उसके आन्तरिक अर्थको यह मानकर छोड़ दिया जाता है कि वह स्वयं समझ लिया जायगा ।1  मैंने अनुवादमें सदा .आशयकी समानताकी रक्षा करते हुए भी सब जगह एक ही शब्दावलि नहीं प्रयुक्त की है, किंतु शब्दके अनुवादको उस उस स्थलविशेषके अनुसार विविध प्रकारसे किया है । प्रायः मुझे मूलमंत्रके पूरे भाव या रंगतको प्रकट कर सकनेवाला  ( इंगलिशका ) ठीक उपयुक्त शब्द नहीं मिल सका है; मैंने एककी जगह दो शब्द प्रयुक्त किये हैं या एक शब्दावलि प्रयुक्त की है या फिर वेद- वचनको ठीक-ठीक और पूरा अर्थ देनेके लिये कुछ अन्य उपायका आश्रयण 

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1. ॠषि कई बार दो भिन्न अर्थोको एक ही शब्दमें संयुक्त करते होते हैं, मैंने यथावसर रख दोहरे अर्थको अनुदित करनेका यज्ञ किया है ।

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किया है ।1 इसके अतिरिक्त बहुधा वेदमें उसके, प्राचीन शब्दोंका या भाषाके धुमावोंका ऐसा प्रयोग हुआ है जिसका आशय वस्तुत: ज्ञात नहीं होता,  उसका केवल अनुमान करना होता है या उसके भिन्न अनुवाद भी समानरूप से संभव हो सकते है । अनेक स्थलोंपर मुझे एक अस्थायी अनुवाद देकर छोड़ देना पड़ा है, विचार यह .था कि उनका अन्तिम निर्णय उस समयतक स्थगित रहे जबतक वैदिक सूक्तोंके और अधिक बड़े समुदायका अनुवाद न हो जाय और वह प्रकाशनके लिये तैयार न हो जाय;  पर वह समय अभी आया नहीं है ।

 

जनवरी 1946                                                                    

अरविन्द

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1. वह ऐसे अन्य कथन श्रीअरविन्दकृत मन्त्रोंके अंगेजी अनुवादसे सम्बन्ध रखते हैं और हिन्दी अनुवादमें भी आवश्यकतानुसार श्रीअरविन्दकी इस शैलीका अनुसरण किया गया है 

-अनुवादक 

 

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 वैदिक यज्ञ और देवताओंके रूपक

 

यज्ञका निरूपण कभी-कभी यात्रा था समुद्रयात्राके रूपकके द्वारा किया जाता है; क्योंकिं यह ( यज्ञ ) चलता है, यह आरोहण करता है;  इसका एक लक्ष्य--विशालता, वास्तविक अस्तित्व, प्रकाश आनन्द--है और इससे चाहा गया है कि यह अपने उस लक्ष्यपर पहुँचेनेके लिये एक उत्तम, सीधा और सुखमय मार्ग खोज निकाले और उसीपर चले,-यह है सत्यका कठिन किंतु आनंदपूर्ण पथ । इसे दिव्य संकल्पके जाज्वल्यमान बल द्वारा परिचालित होकर मानो पर्वतकी एक अधित्यकासे दूसरी अधि-त्यकापर चढ्या होता है, इसे मानो एक पोतके द्वारा सत्ताके समुद्रको पार करना होता है, इसकी नदियोंको लांघना, इसके गहरे गड्ढों और वेगवती धाराओंका अतिक्रमण करना होता है; इसका उद्देश्य होता है असीमता और प्रकाशके सुदूरवर्ती समुद्रपर पहुँचना ।

 

और यह कोई सरल या निष्कंटक प्रयाण नहीं है । यह लंबे समयोंतक एक भयंकर और क्रूर युद्ध होता है । निरंतर ही आर्यपुरुषको श्रम करना होता है और लड़ना होता है और विजय प्राप्त करनी होती है; उसे अथक परिश्रमी, अश्रांत पथिक.और कठोर योद्धा होना होता है, उसे एकके बाद एक नगरीका भेदन करना, उसे आक्रांत करना और लूटना, एकके बाद एक राज्यको. जीतना, एकके बाद एक शत्रुको पछाड़ना. और उसे, निर्दयतापूर्वक पददलित करना होता है । उसकी समय प्रगति होती है एक संग्राम-देवों और दानवोंका, देवों और दैत्योंका, इन्द्र और वृत्रका, आर्य और दस्युका संग्राम । उसे विरोधी आर्योका भी खुले क्षेत्रमें सामना करना होता है, क्योंकि पहलेके मित्र और सहायक भी शत्रु बन जाते हैं, आर्य राज्योंके राजा जिन्हें उसे जीतना और अतिलंधन करना होता है, दस्युओंसे जा मिलते हैं और उसके मुक्त और पूर्ण अभिगमनको रोकनेके लिये चरम युद्धमें उसके विरोधमें आ खड़े होते हैं ।

 

 परंतु दस्यु है स्वाभाविक शत्रु | इन विभाजकों, लुटेरों, हानिकारक शक्तियोंको, इन दानवों, विभाजनकी माताके पुत्रोंको ऋषियोंने कई सामान्य संज्ञाओंद्वारा पुकारा है । थे हैं 'राक्षस'; ये हैं खानेवाले और हड़प 

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1. 'On the Veda'  (ऑन दि वेद ) में प्रकाशित अत्रियोंके सूक्तोंके भूमिकाभागमेंसे संकलित संदर्भ |

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जानेवाले, भेड़िये ( वृक ) और चीर डालनेवाले; ये हैं क्षति पहूँचानेवाले, घृणा करनेवाले; ये हैं द्वैध करनेवाले; ये हैं सीमित करनेवाले या निंदा करनेवाले । पर ऋषि हमें कई विशेष नाम भी बताते हैं । उनमें 'वृत', वह सर्प, प्रधान शत्रु है; क्योंकि वह अपनी अंधकारकी कुंडलियोंद्वारा दिव्य सत्ता और दिव्य क्रियाकी सब संभावना को ही रोकता है । और जब प्रकाशके द्वारा वृत्रका वध कर दिया जाता है तो उसमेंसे उससे भी अधिक भयंकर शत्रु उठ खड़े होते हैं । उनमेंसे एक है शुष्ण जो हमें अपने अपवित्र और असिद्धिकर बलसे पीड़ित करता है, दूसरा है नमृचि जो मनुष्यसे उसकी दुर्बलताओके द्वारा लड़ता है, और कुछ अन्य भी हैं जिनमेंसे प्रत्येक निजी विशेष बुराईके साथ आक्रमण करता है । और फिर हैं वल और पणि-इन्द्रिय-जीवनमें लेन-देन करनेवाले लोभी बनिये, उच्चतर प्रकाश और उसकी ज्योतियोंको चुराने और छुपानेवाले । ये प्रकाश और उसकी ज्योतियोंको केवल अन्धकारसे आवृत कर सकते हैं और उनका दुरूपयोग ही कर सकते हैं । ये हैं अशुचिगण जो देवोंकी संपदाके ईर्ष्यालु होते हैं किन्तु यज्ञ करके कभी उन्हें हवि प्रदान नहीं करना चाहते । हमारी अज्ञानता बुराई, दुर्बलता तथा अनेकानेक सीमाओंका साकार रूप रखनेवाले ये तथा अन्य व्यक्तित्व-जो इन अज्ञानता आदि पर व्यक्तित्वारोप या इनके मानयीकरणसे कहीं अधिक कुछ है-मनुष्यके साथ निरन्तर युद्ध करते रहते हैं । ये उसे समीपतासे घेरे रहते हैं या उसपर दूरसे अपने तीर मारते रहते हैं अथवा यहाँ तक कि उसके द्वारोंवाले घरमें देवोंके स्थानमें रहते हैं और अपने आकाररहित और हकलाते हुए मुखोंद्वारा तथा अपने बलके अपर्याप्त निःश्वासके द्वारा उसके आत्म-अभिव्यंजनको दूषित करते हैं । इन्हें निकाल बाहर करना होगा वशमें करके मार डालना होगा, महान् और साहाय्यकारक देवताओंकी सहायताके द्वारा इन्हें इनके निम्न अंधकारमें धकेल देना होगा ।

 

वैदिक देवता विश्वव्यापी देवताके नाम, शक्तियां और व्यक्तित्व हैं और वे दिव्य सत्ताके किसी विशेष सारभूत बलका प्रतिनिधित्व करते हैं । ये देव विश्वको अभिव्यक्त करते हैं और इसमें अभिव्यक्त हुए है । प्रकाशकी संतान और असीमताके पुत्र ये मनुष्यकी आत्माके अंदर अपने बंधुत्व और सख्यको पहचानते हैं और उसे सहायता पहूँचाना और. उसके अंदर अपने- आपको बढ़ानेके द्वारा उसे बढ़ाना चाहते हैं जिससे कि उसके जगत्को वे अपने प्रकाश बल और सौंदर्यके द्वारा अभिव्याप्त कर सकें । देवता मनुष्यको पुकारते है एक दिव्य सख्य और साथीपनके लिये, वे उसे अपने प्रकाशमय

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वैदिक याज्ञ और देवतओंके रूपक  

 

भ्रातृत्वके लिये आकृष्ट करते और ऊपर उठाते हैं, वे अंधकार और विभाजनफे पुत्रोंके विरोधमें उसकी सहायता आमंत्रित करते और अपनी सहायता उसे प्रदान करते है । बदलेमें मनुष्य देवताओंको अपने यज्ञमें आहूत करता है, उन्हें अपनी तीव्रताओं और अपने बलोंकी अपनी निर्मलताओं और अपनी मधुरताओंकी हवि भेंट करता है--प्रकाशमय गौके दूध और घीकी आनंदके पौधेके निचोड़े हुएं रसोंकी, यज्ञके अश्वकी, अपूप और सुराकी दिव्य-मनमे चमकीले हरिओं ( घोड़ों ) के लिये अन्नकी भेंट चढ़ाता है । वह उन्हें  ( देवोंको ) अपनी सत्तामें ग्रहण करता है और उनकी देनोंको अपने जीवनमें; यह उन्हें मंत्रों और सोमरसोंसे बढ़ाता है और उनके महान् तथा प्रकाशमय देवत्वोंको पूर्णतया रचता है; वेद कहता है कि वह उन्हें ऐसे रचता है 'जैसे लोहार लोहेको घड़ता है  

 

इस सब वैदिक रूपकको समझना हमारे लिये सुगम है, यदि एक बार हमें इसकी कुंजी मिल जाय, परंतु इसे केवल रूपकमात्र मान लेना गलती होगी । देवता निर्विशेष भावोंके या प्रकृतिके मनोवैज्ञानिक और भौतिक व्यापारोंके केवल कविकृत मानवीकरण नहीं हैं । वैदिक ऋषियोंके लिये वे सजीव सद्वस्तुएँ हैं । मानव आत्माके उलट-फेर अवस्थान्तर एक वैश्व संधर्षके निदर्शक होते हैं, न केवल सिद्धांतों और प्रवृत्तियोंकि संघर्षके किंतु उनको आश्रय देनेवाली तथा उन्हें मूर्त्त करनेवाली वैश्य शक्तियोंके संघर्षके भी । ये वैश्व शक्तियां ही हैं देव और दैत्य । वैश्व रंगमंचपर और वैक्तिक आत्मामें दोनों जगह एक ही वास्तविक नाटक उन्हीं पात्रोंके द्वारा खेला जा रहा है ।

 

*                        *                        *                        *

                                                                                                                                                                                         

वे देव कौनसे हैं जिनका यजन करना है ? वे कौन हैं जिनका यज्ञमें आवाहन करना है जिससे कि यह वर्धनशील देवत्व मानवसत्ताके  अंदर अभिव्यक्त हो सके और रक्षित न सके ?

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सबसे पहला है अग्नि, क्योंकि उसके बिना यज्ञिय ज्वाला आत्माकी वेदी पर प्रदीप्त ही नहीं हो सकती । अग्निकी वह ज्वाला है संकल्पकी सप्तजिह्व शक्ति; परमेश्वरकी एक ज्ञान-प्रेरित शक्ति । यह सचेतन  ( जागृत ) तथा बलशाली संकल्प हमारी मर्त्यसत्ताके अंदर अमर्त्य अतिथि है, एक पवित्र पुरोहित और दिव्य कार्यकर्ता है, पृथिवी और द्यौके बीच मध्यस्थता करनेवाला है । जो कुछ हम हवि प्रदान करते है उसे यह उच्चतर शक्तियोंतक ले जाता है और बदलेमें उनकी शक्ति और प्रकाश और आनंद हमारी मानवताके अंदर ले आता है |

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दूसरा देव है शक्तिशाली इन्द्र । वह शुद्ध सत्की शक्ति है जो भागवत मन के रूपमें स्वतः-अभिव्यक्त है । जैसे अग्नि एक ध्रव है, ज्ञानसे आविष्ट शक्तिका ध्रुव, जो अपनी धाराको ऊपर पृथ्वीसे धौकी तरफ भेजता है, वैसे ही इन्द्र दूसरा ध्रव है, शक्तिसे आविष्ट प्रकाशका घ्रुव, जो द्योसे पृथ्वीपर उतरता है । वह हमारे इस जगत्में एक पराक्रमी वीर योद्धाके रूपमें अपने चमकीले घोड़ोंके साथ उतरता है, और अपनी विद्युतों, वज्रोंके  द्वारा अंधकार तथा विभाजनका विनाश करता है, जीवनदायक दिव्य जलोकी वर्षा करता है, शुनी ( अंतर्ज्ञान ) की खोजके द्वारा खोयी या छिपी हुई ज्योतियोंको ढूंढ़ निकालता है, हमारी मनोमयसत्ताके द्युलोकमें सत्यके सूर्यको ऊँचा चढ़ा देता है ।

 

सूर्य-देवता है उस परम सत्यका स्वामी-सत्ताके सत्य, ज्ञानके सत्य, क्रिया और प्रक्रियाके, गति और व्यापारके   सत्यका स्वामी । इसलिये सूर्य है सब वस्तुओंका स्रष्टा, बल्कि अभिव्यंजक (क्योंकि सर्जनका अर्थ है बाहर ले आना, सत्य और संकल्पके द्वारा प्रकट कर देना ), और यह हमारी आत्माओंका पिता, पोषक तथा प्रकाशप्रदाता है । जिन ज्योतियोंको हम चाहते है वे इसी सूर्यके गोयूथ हैं, गौएँ हैं ।. यह सूर्य हमारे पास दिव्य उषाओंके  पथसे आता है और हमारे अंदर रात्रिमें  छिपे पड़े जगतोंको  एकके बाद एक खोलता तथा प्रकाशित करता जाता है अबतक कि यह हमारे लिये सर्वोच्च,. परम आनंदको नहीं खोल देता |

 

इस आनंदकी प्रतिनिधिभूत देवता है सोम | उसके आनंदका रस ( सुरा ) छिपा हुआ है पृथिवीके प्ररोहोंमें, पौधोंमें और सत्ताके जलोंमें; यहाँ हमारी भौतिक सत्तातकमें उसके अमरतादायक रस है और उन्हें निकालना है, उनका सवन करना है और उन्हें सब देवताओंको हविरूपमें प्रदान करना है, क्योंकि सोमरसके बलसे ही ये देव बढ़ेंगे और विजयशाली होंगे ।

 

इन प्राथमिक देवोंमेंसे प्रत्येकके साथ अन्य देव जुड़े हैं जो उसके अपने व्यापारसे  उदगत   व्यापारोंको पूरा करते हैं । क्योंकि यदि सूर्यके सत्यको हमारि मर्त्य प्रकृति में दृढ़तया स्थापित होना है तो कुछ पूर्ववर्ती अवस्थाएँ हैं जिनका स्थापित हो जाना अनिवार्य है; एक बृहत् पवित्रता और स्वच्छ विशालता जो समस्त पाप और कुटिल मिथ्यात्वकी विनाशक है--यह है वरुण देव; प्रेम और समग्रबोघकी एक प्रकाशमय शक्ति जो हमारे विचारों, कर्मों, और आवेगोंको आगे ले जाती और उन्हें सामंजस्य- युक्त कर देती है; --यह  हैं मित्र देव; सुस्पष्ट-विवेचनशील अभीप्सा तथा प्रयत्नकी अमर शक्ति पराक्रम--अर्यमा;  सब वस्तुओंका

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समुचित  उपभोग करनेकी एक सुखमय अवस्था जो पाप, भ्रांति और पीड़ाके दु:स्वप्नका निवारण करती है--यह है भग । वे चारों सूर्यके सत्यकी शक्तियाँ हैं ।

 

सोमका समग्र आनंद हमारी प्रकृतिमें पूर्णतया स्थापित हो जाय इसके लिये मन, प्राण और शरीरकी एक सुखमय, प्रकाशमान और अविकलांग अवस्थाका होना आवश्यक है । यह अवस्था हमें प्रदान की जाती है युगल अश्विनोंके द्वारा । प्रकाशकी दुहितासे विवाहित, मधुको पीनेवाले, पूर्ण संतुष्टियोंको लानेवाले, व्याधि और अंगभंगके भैषज्यकर्त्ता ये अश्विनौ हमारे ज्ञानके भागों और हमारे कर्मके भागोंको अधिष्ठित करते हैं और हमारी मानसिक, प्राणिक तथा भौतिक सत्ताको एक सुगम और विजयशाली आरोहणके लिये तैयार कर देते हैं ।

 

मानसिक रूपोंके निर्माताके तौरपर इन्द्रके, दिव्य मनके सहायक होते है उसके शिल्पी ॠभूगण । ये ॠभू हैं मानवीय शक्तियाँ जिन्होंने यज्ञके संपादनसे और सूर्यके ऊँचे निवासस्थानतक अपने उज्ज्वल आरोहणफे द्वारा अमरत्व प्राप्त किया है और जो अपनी इस सिद्धिकी पुनरावृत्ति किये जानेमें मनुष्यजातिकी सहायता करते हैं । थे मनके द्वारा इन्द्रके घोड़ोंका निर्माण करते हैं, अश्विनौके रथका, देवताओके शस्त्रोंका तथा यात्रा एवं युद्धके समस्त साधनोंका निर्माण करते हैं । परंतु सत्यके प्रकाशके प्रदाता तथा वृत्रहंताके रूपमें इन्द्र्के सहायक हैं मरुत् । ये मरुत् संकल्पकी तथा वातिक या प्राणिक बलकी शक्तियाँ हैं जिन्होंने विचारके प्रकाश और आत्मप्रकटनकी गिराको प्राप्त किया है । ये समस्त विचार और वाणीके पीछे उसके प्रेरकके रूपमें रहते हैं और परम चेतनाके प्रकाश, सत्य और आनंदको पहूँचनेके लिये युद्ध करते हैं ।

 

और फिर स्त्रीलिंगी शक्तियाँ भी हैं; क्योंकि देव पुरुष और स्त्री दोनों है और देवता भी या तो सक्रिय करनेवाली आत्माएँ है या निष्प्रतिरोध रूपसे कार्य संपन्न करनेवाली और यथाक्रम विन्यास करनेवाली शक्तियां हैं । उनमें सबसे पहले आती है अदिति, देवोंकी असीम माता, और फिर उसके अतिरिक्त सत्य चेतनाकी पाँच शक्तियाँ भी हैं--वही अथवा भारती है वह विशाल वाणी जो सब वस्तुओंको दिव्य स्रोतसे हमारे लिये ले आती है; इड़ा है सत्यकी वह दृढ़ आदिम वाणी जो हमें इसका सक्रिय दर्शन प्रदान करती है;. सरस्वती है इस (सत्य) की बहती हुई धारा और इसकी अंत:प्रेरणाकी वाणी; सरमा, अंतर्ज्ञानकी देवी है वह द्युलोककी शुनी जो अवचेतनाकी गुफामें उतर आती है और, वहाँ छिपी हुई ज्योतियोंको ढूँढ़

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लेती है; फिर है दक्षिणा जिसका व्यापार होता है ठीक-ठीक विवेचन करना,  क्रिया और हविका विनियोग करना तथा यज्ञमें प्रत्येक देकाको  उसका भाग वितीर्ण करना । इसी प्रकार प्रत्येक देवकी भी अमी-अपनी एक स्त्रीलिंगी शक्ति है ।

 

 इस सब क्रिया और संघर्ष और आरोहणके आधार हैं हमारा पिता द्यौ और हमारी माता पृथिवी, देवोंके पितरौ, जो क्रमश: हमारी शुद्ध मानसि एवं आंतरात्मिक चेतनाको तथा भौतिक चेतनाको धारण करते हैं । इनका विस्तृत और मुक्त अवकाश हमारी सिद्धिके लिये एक आवश्यक अवस्था है । वायु, प्राणका अधिपति, इन दोनोंको अंतरिक्ष, प्राणशक्तिके लोक, के द्वारा जोड़ता है । और फिर अन्य देवता भी हैं--पर्जन्य द्युलोककी वर्षा देधिक्रावा;  दिव्य युद्धाश्व अग्निकी एक शक्ति; आधारका रहस्यमय सर्प ( अहिर्बुध्न्य), त्रित आप्त्य जो भुवनके तीसरे लोकमें हमारी त्रिविध सत्ताको निष्पन्न करता, सिद्ध करता है इनके अतिरिक्त और भीं हैं ।

 

इन सभी देवत्वोंका विकास हमारी पूर्णताके लिये आवश्यक है । और वह पूर्णता हमें प्राप्त करनी चाहिये अपने सभी स्तरोंपर-पुथ्वीकी विस्तीर्णतामें, हमारी भौतिक सत्ता और चेतनामें; प्राणिक वेग और क्रिया और उपभोगके तथा वातिक स्पंदनके पूर्ण बलमें, जो घोड़े (अश्व) के रूपकसे निरुपित किया गया है, जिस घोड़ेको हमें अपने प्रयत्नोंको आश्रय देनेके लिये अवश्य सामने लाना चाहिये; भावमय हृदयके पूर्ण आनंदमें और मनकी एक चमकीली उष्णता और निर्मलतामें, हमारी समस्त बौद्धिक और अंतमनसिक सत्ताभरमें; अतिमानस प्रकाशके आगमनमें,  उषा तथा सूर्यके एवं गौओंकी ज्योतिर्मयी माताके आगमनमें, जो हमारी सत्ताका रूपांतर करनेके लिये आते हैं; क्योंकि इसी प्रकार हम सत्यको अधिकृत करते हैं, सत्यके द्वारा आनंदकी अद्भुत महान् लहरको, आनंदमें निरपेक्ष अस्तित्वकी असीम चेतनाको आयत्त करते है ।

 

तीन महान् देवता, जों पौराणिक त्रिमूर्त्तिके मूल हैं और परम देवकी तीन वृहत्तम शक्तियां हैं इस क्रमोन्नति और ऊर्ध्वमुख विकासको संभव बनाते है; ये ही ब्रह्यांडकी इन सब जटिलताओंको उसकी विशाल रूप-रेखाओंमें और मूलभूत शक्तियोंमें धारण करते हैं । उनमेंसे पहला ब्रह्मणस्पति है स्रष्टा, वह शब्दके द्वारा, अपने रवके द्वारा सर्जन करता है-- इसका अभिप्राय हुआ कि वह अभिव्यक्त करता है, समस्त सत्ताको और सब सचेतन ज्ञानको तथा जीवनकी गतिको और अंतिम परिणत रूपोंको निश्चेतनाके अंधकारमेंसे  बाहर निकालकर प्रकट कर देता । फिर है

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वैदिक याज्ञ और देवतओंके रूपक

 

रुद्र प्रचंड. और दयालु, उर्ज्वस्वी देव, जो जीवनके अपने आपको सुस्थित करनेके लिये होनेवाले संघर्षका अधिष्ठाता है; वह है परमेश्वरकी शस्त्रसज्जितत मन्युयुक्त तथा कल्याणकरी शक्ति जो सृष्टिको जबर्दस्ती उपरकी ओर उढाती है, जो कोई विरोध करता है उस सबपर प्रहार करती है, जो कोई गलती करता हे या प्रतिरोध करता है उस सबको चाबुक लगाती है, जो कोई क्षत हुआ है और दुःखी है और शिकायत करता है तथा शरण आता है उस सबकी मरहमपट्टी करती, उसे चंगा कर देती है|  तीसरा, विशाल व्यापक गतिवाला विष्णु है ओ अपने तीन पद-कर्मोमें इन सब लोकोंको धारण करता है । यह विष्णु ही हमारी सीमित मर्त्यसत्ताके अंदर इन्द्रिय क्रिया होनेके लिये विस्तृत स्थान बनाता है; उसके द्वारा और उसके साथ ही हम उसके उच्चतम पदोंतक आरोहण कर पाते हैं जहाँ उस मित्र, प्रिय, परम सुखदाता देवको हम अपनी प्रतीक्षा करते हुए पाते हैं ।

 

हमारी यह पृथ्यी जो सत्ताके अंधकारमय निश्चेतन समुद्रमेंसे निर्मित हुई है, अपनी उच्च रचनाओंको और अपने चढ़ते हुए शिखरोंको द्युलोककी ओर ऊपर उठाती है । मनके द्युलोककी अपनी ही निजी रचनाएँ हैं, पर्जन्य हैं जो अपने विद्युत्-प्रकाशोंको तथा अपने जीवननलोंको प्रदान करते हैं; निर्मलताकी तथा मधुकी धाराएँ नीचेके अवचेतन समुद्रमेंसे उठकर ऊपर चढ़ती हैं और ऊपरके अतिचेतन समुद्रको पहुँचना चाहती हैं; और ऊपरसे वह समुद्र अपनी प्रकाशकी और सत्य और आनंदकी नदियोंको नीचेकी ओर, हमारी भौतिक सत्ताके अंदरतक भी, बहाता है । इस प्रकार भौतिक प्रकृतिके रूपकोंके द्वारा वैदिक कवि हमारे आध्यात्मिक आरोहणका गीत- गान करते हैं ।

 

वह आरोहण प्राचीन पुरुषों, मानव-पूर्वपितरों, द्वारा पहले ही संपन्न किया जा चुका है और उन महान् पूर्वजोंकी आत्मा अब भी अपनी संतानोंकी सहायता करती है; क्योंकि नवीन उषाएँ पुरानियोंकी पुनरावृत्ति करनेवाली होती हैं तथा भविष्यकी उषाओंसे मिलनेके लिये प्रकाशमें आगे झुकती हैं : कण्व, कुत्स, अत्रि कक्षीवान्, गोतम, शुनःशेप आदि ऋषि विशेष प्रकारकी आध्यात्मिक विजयें प्राप्त करके आदर्श स्थापित कर चुके हैं जिनकी वे विजयें मानवजातिकी अनुभूतिमें सतत पुनरावृत्त होनेकी प्रवृत्ति रखती है, । सप्त ॠषि, वे अंगिरम् मंत्रगान करने, गुफाको तोड़ने, खोयी हुई गौओंको खोजने, छिपे हुए सूर्यको पुनः प्राप्त करनेको उद्यत अब भी और सदैव प्रतीक्षा कर रहे हैं । इस प्रकार आत्मा सहायता करनेवालों और हानि पहुँचानेवालों, मित्रों और शत्रुओंसे भरा हुआ एक युद्धक्षेत्र है । यह सब सजीव है, भरपूर है, वैयक्तिक है,

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सचेतन है सक्रिय है । पथ और शब्दके द्वारा अपने मिजके लिए प्रकाशयुक्त द्रष्ठाओंको, हमारे लिये लड़नेवाले वीरोंको, अपने कार्योकी संतानोंको उत्पन्न करते हैं । ॠषिवृंद और देवता हमारे लिये चमकीली गौएँ खोज लाते हैं;. ॠभ्रुगन मनके द्वारा देवोंके रथ और उनके घोड़ो और उनके चमकते हुए शस्त्र निर्मित करते हैं । हमारा जीवन एक घोड़ा है वो हिनहिनाता हुआ और सरपट दौड़ता हुआ आगे-आगे और ऊपर-ऊपर हमें चढ़ाये  लिये जा रहा है; इसकी शक्तियां द्रुतगामी अश्व हैं, मनकी मुक्त हुई शक्तियाँ विस्तृत पंखोंवाले पक्षी हैं; वह मानसिक सत्ता या यह आत्म ऊपरकी और उड़नेवाला हंस या श्येन है जो सैकड़ों लोह-भित्तियोंको तोड़कर बाहर निकल आता है और आनंद-धामके ईर्ष्यालु संरक्षकोंसे सोमकी सुराको छीन लाता है । प्रत्येक प्रकाशपूर्ण परमेश्वरोन्मुख विचार जो हृदयकी गुप्त अगाष गहराइयोंसे निकलता है एक पुरोहित है और एक स्रष्टा है और वह प्रकाशमय सिद्धि तथा पराक्रमपूर्ण कृतार्थताके दिव्य गीतका गान करता है | हम सत्यके चमकीले सुवर्णको खोजते है; हम द्युलोककी निधिकी कामना करते हैं ।

 

मनुष्यका आत्मा सत्ताओंसे भरा एक संसार हूँ, एक. राज्य है जिसमें परम विजय पानेके लिये या उसमें बाधाएँ डालनेके लिये सेनाएँ संघर्ष करती हैं,  एक घर ह जिसमें देवता हमारे अतिथि हैं और जिसे असुर अधिकृत कर लेना चाहते है; इसकी शक्तियोंकी पूर्णता और इसकी सत्ताकी विशालता दिव्यसत्रके लिये ( देवताओंके आकर बैठनेके लिये ) यज्ञका आसन  (बर्हि: ) बिछाकर उसे व्यवस्थित. और पवित्र कर देती हैं ।

 

ये हैं वेदके  कुछ एक मुख्य रूपक और हैं उन. पूर्व-परखोंकी शिक्षाकी बहुत संक्षिप्त और अपर्याप्त रूपरेखा । इस प्रकार समझा हुआ ऋग्बेद एक अस्पष्ट,. गड़बड़से भरा और जंगली गीतावलि नहीं रहता, यह मनुष्यजातिका  एक ऊँची अभीप्सासे युक्त गीतपाठ बन जाता है,  इसके सूक्त हैं आत्माकी अपना अमर आरोहण करते हुए गायी आती वीरगाथाके आख्यान ।

 

कम-से-कम यह है; वेदमें और जो कुछ प्राचीन विज्ञान, लुप्त विद्या, पुरानी मनोभौतिक परंपरा आदि हों उन्हें अभी खोजना शेष ही है ।

--श्रीअरीवन्द

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